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किस तरह ज़िंदा रहेंगे हम तुम्हारे शहर में / सय्यद अहमद 'शमीम'
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किस तरह ज़िंदा रहेंगे हम तुम्हारे शहर में
हर तरफ़ बिखरे हुए हैं माह-पारे शहर में
जगमगाती रौशनी में ये नहाते सीम-तन
जैसे उतरे हों ज़मीं पर चाँद तारे शहर में
मिस्ल-ए-ख़ुशबू-ए-सबा फैली हुई हर तरफ़
गेसू-ए-बंगाल की ख़ुशबू हमारे शहर में
हुस्न वालों के सितम सह कर भी हम ज़िंदा रहे
वर्ना कितनों के हुए हैं वारे न्यारे शहर में
ये मता-ए-पारसाई भी न लुट जाए कहीं
दे रहे हैं दावत-ए-लग्जिश नज़ारे शहर में
लहलहाते खेत नद्दी गाँव की प्यारी हवा
छोड़ कर बेकार आए हम तुम्हारे शहर में
अपने ही ज़ौक-ए-जमाल-ओ-हुस्न के हाथों ‘शमीम’
आज हम बद-नाम आवारा हैं सारे शहर में