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किस तरह पर ऐसे बद-ख़ू से सफ़ाई कीजिए / रजब अली बेग 'सुरूर'
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किस तरह पर ऐसे बद-ख़ू से सफ़ाई कीजिए
जिस की तीनत में यही हो कज-अदाई कीजिए
जब मसीहा की हो मर्ज़ी कज-अदाई कीजिए
इस जगह क्या दर्द-ए-दिल की फिर दवाई कीजिए
उस से खिंच रहता हूँ जब तब ये कहे है मुझ से दिल
आशिक़ी या कीजिए या मीरज़ाई कीजिए
गर ये दिल अपना कहे में अपने होवे नासेहा
बैठ कर कुंज-ए-क़नाअत में ख़ुदाई कीजिए
क्या यही थी शर्त कुछ इंसाफ़ की ऐ तुंद-ख़ू
जो भला हो आप से उस से बुराई कीजिए
वो भला चंगा हुआ बर्गश्ता मुझ से और भी
क्या बयाँ नाले की अपने ना-रसाई कीजिए
खा गया लग्जिश क़दम ऐसा बुतों को देख कर
जी में ये आया कि तर्क-ए-पारसाई कीजिए
अक्स हो मालूम उस का घर ही बैठे ऐ ‘सुरूर’
पहले ज़ंग-ए-दिल की जब अपने सफ़ाई कीजिए