किस तरह यह शख़्स यायावर हुआ / भारत यायावर
आत्म-कथा
बहुत सारे लोग मुझसे पूछते हैं
किस तरह मैं यायावर हुआ ?
यायावर हुआ तो उसकी जाति और गोत्र क्या है ?
वह किस सम्प्रदाय का है ?
तो मित्रो ! आज मैं स्पष्टीकरण दे रहा हूँ ।
मैं जब पैदा हुआ तो अपने माता-पिता का तीसरा पुत्र था । बाद में मेरा चौथा भाई हुआ । मेरे पिता राजा दशरथ नहीं थे, पर चार पुत्रों के पिता अवश्य थे । रामायण की तरह तीसरे पुत्र को भरत पुकारा जाने लगा । बड़े भाइयों का मैं आज्ञाकारी था । भरत सम भाई था । मैं बचपन से ही कुछ नया करने की कोशिश में लगा रहता था । सबसे पहले मैंने अपने भरत को भारत बनाया और यह मेरे सभी सर्टिफिकेटों में दर्ज भी हो गया । फिर जब साहित्यिक क्षेत्र में आया तो मैंने अपने सिंह को हटाने का निर्णय लिया । हिन्दी साहित्य में सिंहों की भरमार थी और मैं अज्ञेय से बेहद प्रभावित था, इसलिए भारत के साथ यायावर लिखने लगा और छपने भी लगा। इस तरह यह शख़्स यायावर हुआ !
लेकिन यह यायावर है क्या ? सतत चिन्तन-मनन करने वाले और घूमते रहने वाले मुनियों को यायावर कहा जाता है । जयशंकर प्रसाद ने कामायनी में लिखा है :
अरे यायावर अब तेरा निस्तार नहीं !
यह मनु के लिए कहा गया कथन है । मन ही यायावर है । वह कुछ-न-कुछ खोजता रहता है । कुछ-न-कुछ पाना चाहता है । वह निरन्तर गतिमान रहता है । वह भटकता रहता है । बुद्ध भी ऐसे ही मुनि थे । उनका एक नाम यायावर भी है । संस्कृत के आचार्यों में राजशेखर को भी यायावर कहा जाता है ।
हिन्दी के पहले खोजी यायावर राहुल सांकृत्यायन थे । उन्होंने तो घुमक्कड़ी का एक शास्त्र ही निर्मित कर दिया है । नागार्जुन उन्हीं के शिष्य थे और उन्होंने मुझे अपना शिष्य बनाया । लेकिन मुझे अज्ञेय की कविता बहुत प्यारी लगती थी :
क्षितिज ने पलक सी खोली
दमक कर दामिनी बोली
मिलेंगे बरस दिन
अनगिन दिनों के बाद
अरे यायावर ! रहेगा याद !
मैं भी नित नूतन खोज में लगा रहता हूँ । सन्धान रत रहना ही मुझे भाता है । किसी एक आस्था पर मैं टिका नहीं रहता । किसी विचारधारा के खूँटे में बँधकर रहना मुझे मंज़ूर नहीं । यायावर होने की सार्थकता निरन्तर बदलते रहने और कुछ न कुछ नया तलाशते रहने में है ।