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किस नाम-ए-मुबारक ने मज़ा मुँह को दिया है / 'वहशत' रज़ा अली कलकत्वी

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किस नाम-ए-मुबारक ने मज़ा मुँह को दिया है
क्यूँ लब पे मेरे ज़मज़म-ए-सल्ल-ए-अला है

किस दर की गदाई मेरी क़िस्मत में है या रब
सर पर जो मेरे साया-फ़गन बाल-ए-हुमा है

सीने में मेरे दाग़-ए-ग़म-ए-इश्क़-ए-नबी है
इक गौहर-ए-नायाब मेरे हाथ लगा है

सरगर्म है दिल शाफ़ा-ए-महशर की तलब में
काफ़िर हूँ अगर कुछ भी ग़म-ए-रोज़-ए-जज़ा हुई

गुस्ताख़ तेरी मदह-सराई में है ‘वहशत’
क्यूँकर न हो तेरे ही तो कूचे का गदा है