किस पे क़ाबू जो तुझी पे नहीं क़ाबू अपना / शाद अज़ीमाबादी
किस पे क़ाबू जो तुझी पे नहीं क़ाबू अपना
किस से उम्मीद हमें जब न हुआ तू अपना
जाम-ए-मय देख के जाता रहा क़ाबू अपना
लड़खड़ाता हूँ पकड़ ले कोई बाज़ू अपना
निकहत-ए-गुल बहुत इतराती हुई फिरती है
वो कहीं खोल भ दें तुर्रा-ए-गेसू अपना
उस ने फिर कर भी न देखा कि ये है कौन बला
हम को था ज़ोम कि चल जाएगा जादू अपना
जिस को समझे हो वही चीज़ नहीं मुद्दत से
हम दिखा देंगे कभी चीर के पहलू अपना
पर-ए-परवाज़ निकलने दे क़फ़स में सय्याद
काम देगा यही टूटा हुआ बाज़ू अपना
मिल गए ख़ाक में दर पर तिरे इतना बैठे
इस रियाज़त पे भी अब तक न हुआ तू अपना
ग़म नही जाम-ए-तिलाकार उठा रख साक़ी
क्या ग़रज़ हम को सलामत रहे चुल्लू अपना
चौकड़ी भूल के मुँह तकते हैं मुझ वहशी के
आके इस पाँव पे सर रखते हैं आहू अपना
कौन ऐ तुल-ए-शब-ए-ग़म तिरा झगड़ा रक्खे
आज क़िस्सा ही किए देते हैं यकसू अपना
निकहत-ए-ख़ुल्द-ए-बरीं फैल गई कोसों तक
वो नहा कर जो सुखाने लगे गेसू अपना
लिल्लाहिल-हम्द कुदूरत नहीं रहने पाती
मुँह धुला देता है हर सुब्ह को आँसू अपना
शादी ओ ग़म के रहेंगे यही रगड़े झगड़े
क़िस्सा जिस वक़्त तलक होगा न यकसू अपना
ग़म में परवाना-ए-मरहूम के थमते नहीं अश्क
शम्अ ऐ शम्अ ज़रा देख तो मुँह तू अपना
बे-अदब मुसहफ़-ए-रूख़्सार पे झुक पड़ते हैं
रखिए शानों पे ज़रा घेर के गेसू अपना
सीना-ए-तंग से घबरा के गया दिल तो गया
मुँह दिखाए न मुझे अब ये सियह-रू अपना
फँसने वाला था फँसा आ के तिरी ज़ुल्फ़ों में दिल
ब-ख़ुदा इस में नहीं जुर्म सर-ए-मू अपना
शाम से जेब में इक तल्ख़ दवा रक्खी है
आज क़िस्सा ही किए देते हैं यकसू अपना
वहम ओ इदराक ओ ख़यालात ओ दिल ओ ख़्वाहिश-ए-दिल
सब तो अपने हैं मगर क्यूँ नहीं क़ाबू अपना
‘शाद’ समझाते हैं क्यूँ ग़ैर लिया क्या उन का
चश्म-ए-तर अपनी है जान अपनी है आँसू अपना