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कील / नवनीत पाण्डे
Kavita Kosh से
एक कील हथेली पर
दीवार पर अंगुली एक
रोज रुपती है
वर्तमान की चोटों से
क्षत-विक्षत भविष्य की
दीर्घ छायाएं
रोती है कुत्तों सी
डराती है भूतों सी
देखें! सच...
यही सच बचा है एक
तारों भरे आकाश में
बिजली कड़कती है
बूंदें बरसती है
दीवार से लहू
हथेली से रेत झरती है