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कुँआरी मुट्ठी ! / कन्हैया लाल सेठिया

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युद्ध नहीं है नाश मात्र ही
युद्ध स्वयं निर्माता है,
लड़ा न जिस ने युद्ध राष्ट्र वह
कच्चा ही रह जाता है,
नहीं तिलक के योग्य शीश वह
जिस पर हुआ प्रहार नहीं,
रही कुँआरी मुट्ठी वह जो
पकड़ सकी तलवार नहीं।

हुए न शत-शत घाव देह पर
तो फिर कैसा साँगा है?
माँ का दूध लजाया उसने
केवल मिट्टी राँगा है,
राष्ट्र वही चमका है जिसने
रण का आतप झेला है,
लिये हाथ में शीश, समर में
जो मस्ती से खेला है।

उन के ही आदर्श बचे हैं
पूछ हुई विश्वासों की,
धरा दबी केतन छू आये
ऊँचाई आकाशों की,
ढालों भालों वाले घर ही
गौतम जनमा करते हैं,
दीन-हीन कायर क्लीवों में
कब अवतार उतरते हैं?
नहीं हार कर किन्तु विजय के
बाद अशोक बदलते हैं।

निर्दयता के कड़े ठूँठ से
करुणा के फल फलते हैं,
बल पौरुष के बिना शान्ति का
नारा केवल सपना है,
शान्ति वही रख सकते जिनके
कफन साथ में अपना है,
उठो, न मूंदो कान आज तो
नग्न यथार्थ पुकार रहा,
अपने तीखे बाण टटोलो
बैरी धनु टंकार रहा।

(आज हिमालय बोला से)