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कुंडेश्वर: एक स्मृति-कथा / रमेश तैलंग

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सुबह-सुबह
मोहल्ले की औरतों के साथ
तीज-त्योहार पर
कुंडेश्वर जाती थी मां स्नान करने
और उनके पीछे-पीछे
मैं भी जाता था
पीठ पर कपड़ों की पोटली लादे
दो कोस...पैदल
हम-उम्र लड़कों के साथ,

पुरानी नजाई से
बानपुर दरवाजा,
बानपुर दरवाजा से
सिद्ध बाबा की हवेली
हवेली से डिग्री कालेज का चक्कर लगाता हुआ।
बीच में पड़ता था
हरदौल बाबा का पक्का चबूतरा,
छुटके ककाजू के
हरियाले खेत,
दूर से नजर आता था
राजा का बोतल-महल।

नन्ना बताते थे-
‘एक जमाने में
पानी की तरह बहती थी
विलायती शराब
पूरे रजवाड़े में।
खाली बोतलों से बना
यह बोतल-महल
अब तो अजूबा है
आते-जातों के लिए
ऐयाशी प्रदर्शित न की जाए
तो फिर ऐयाशी क्या?’

नन्ना की बातें तब
कम ही समझ आती थी हम सबको।
शैया से उठते ही वह
हमें रोज सस्वर रटाते थे
हमको श्लोक-
‘कस्तूबर तिलकं ललाट पटले।’

एक ही लाठी थी मुड़ी हुई
नन्ना के पास
जिससे डरते थे
मोहल्ले के आवारा कुत्ते
और हम जैसे शैतान, कामचोर लड़के।

नन्ना के राजुरु
वीरसिंह देव जू के जमाने के,
दमड़ी न जोड़ सके,
उम्र भर चोटी और धोती संभालते रहे।

साल में एक बार
बड़े भैया के घर
मनता था बसंत
श्रीनाथ जी के सामने
पूरे समाज में
गूंजता था नन्ना का रससंगी स्वर-
‘होरीऽ ऽ होऽऽऽ ब्रजराज दुलारे।’
नन्ना मरे
तो उनकी विरासत में
एक ही चीज मिली-
तीन गुणा चार फुट की चद्दर की पेटी।
पेटी में अटी पड़ी थीं
जर्जर सी पोथियां,
विष्णु सहस्त्र नाम, तुलसी की रामायण,
स्त्री-सुबोधिनी
जिन्हें बाई संभालती रही
जब तक जीवित रहीं।

कुुंडेश्वर...
बाई भी जाती थी कभी-कभी
पर वाय के दर्द में उन्हें
कुंडेश्वर के शिवजी नहीं,
डाक्टर भदौरिया याद आते थे।
आह...ऊंह में कट जाता था
दो कोस का रास्ता।

कुंडेश्वर के कुंड में
ऊपर से छलांग लगाते थे
तैराक लड़के।
मैं ठहरा डरपोक,
घाट पर नहाता था।
सीढ़ी की काई पर
कभी-कभी गलती से जब फिसल जाता था
मरने की बद्दुआ देकर
तब मां ही बचाती थी मुझे।
मां थी ब्रज की धूल खाई छोरी,
जमुना नदी की तैराक।
पर कुंडेश्वर के कुंड में कभी नहीं तैरी वह
पता नहीं
गैरों की शर्म थी
या साड़ी की झंझट।

कुंड के पास था
बरगद का जोड़ा आपस में लिपटा हुआ
लक्ष्मी-नारायण का युगल स्वरूप
(वित्त-पत्र होता तो कह सकते थे उसे
शिव और शक्ति का अर्द्धनारीश्वर रूप)

कृष्ण की तरह
अधोवस्त्र चुराते थे वहां कलमुंहे बंदर।
चौकीदार की तरह
चौकसी करने की
ड्यूटी निभाते थे हम।

कुंड के पीछे था
छोटा-सा जंगल।
कुंडेश्वर शिव पर जब
दूध-जल चढ़ाकर वापस आते थे हम
जंगल में साफ-सी जगह पर
कंडों की आग में
पकती थी बाटियां
घी की कटोरी में पूरी डुबोकर हम
बुरे से खाते थे
गिनती की दस-बीस।
भुखमरे लगते थे
मां की नजरों में सब।
तीस बरस हो गए
कुंडेश्वर को छोड़े हुए...
पर कुंडेश्वर क्या छूटा कभी?
सांसों में अब भी महकती है
कुंडेश्वर की मधु गंध।
आंखों के आगे जो नहीं होता
स्मृतियों में बिंधा रह जाता है वह।
कुंडेश्वर...
नाम लेते ही
अब याद आते हैं
बचपन के अनेक प्रसंग
हरिदास मंडली के कीर्तनिए,
चौबे जी का ‘मधुकर’
देवेन्द्र सत्यार्थी की ‘इकन्नी’
और...
बाई का
बाय का दर्द।