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कुचक्र / कविता मालवीय
Kavita Kosh से
अक्सर हम
यादों को
पैरों के नीचे
कुचल कर।
मसल कर
मार आते हैं
पर
उनके मरे हुए
चंद मांस के कतरे
अपने साथ ले आते हैं,
जो फलने लगते हैं,
हमारे अंदर
हमारे ऊपर,
आदतन
जब जब हम पलट कर
यादों के
मरे होने की
पुष्टि करने जाते है
तो वोह कुलबुलाते
परजीवी मांस पिंड
कुचली हुई यादों को
जीवन दान दे आते हैं