कुचलों का स्वर श्रमजल की शहनाई हूँ मैं / शैलेन्द्र सिंह दूहन
बेबस ढुलके अश्कों का हम राही हूँ मैं,
कुचलों का स्वर श्रमजल की शहनाई हूँ मैं।
भूखे पेटों की चीखें सुन मोन रहूँ क्यों?
बौधिक बूचड़खानों की मैं धोंस सहूँ क्यों?
सूरज को ठंडा कह धब्बे गिनने वालों!
टूटे सपनों की पीड़ा बिन ब्याही हूँ मैं।
कुचलों का स्वर श्रमजल की शहनाई हूँ मैं।
विधवाओं की लाज लुटा सिंगार लिए हूँ,
बिन लालों की माँओं का पुचकार लिए हूँ।
मुझ को क्या कोठी से ठंडे कमरों से जी?
कोठों पे मजबूरी की उकलाई हूँ मैं।
कुचलों का स्वर श्रमजल की शहनाई हूँ मैं।
मैने मूर्छित तान सुनी है अवसादों की,
भारी मन से भीड़ तकी है अपराधों की।
बूढ़ी सदियों के कलरव की गूँगी धुन सुन
हर मौसम की टेर सनी पुरवाई हूँ मैं।
कुचलों का स्वर श्रमजल की शहनाई हूँ मैं।
जिन ने दोपहरी के किरचे कंठ लगाए,
जिन के स्वेद कणों ने हैं इतिहास बनाए।
उन की चुप्पी का क्रंदन है कविता मेरी
अपनी ही आँखों से टपकी स्याही हूँ मैं।
कुचलों का स्वर श्रमजल की शहनाई हूँ मैं।
अभिसारों की पुलकन किसको खार लगे है?
मधुमासों के बन्धन किसको भार लगे है?
पर जब तक आँगन घर गलियाँ जहरीली हैं
हँस-हँस कर विष पीती मीराबाई हूँ मैं।
कुचलों का स्वर श्रमजल की शहनाई हूँ मैं।