कुछ इस क़दर ग़ुबार भरे दिन हैं आजकल
हर सुबह नया आफ़ताब माँग रही है
देखो, उठो, इतिहास की पुस्तक को टटोलो
जलदी करो जनता जवाब माँग रही है
वे मुँह खुले, वे हाथ उठे, वे क़दम बढ़े
युग-चेतना अपना हिसाब माँग रही है
ख़्वाबों के खिलौनों से बहुत खेल चुकी है
हर झोंपड़ी ताबीरे-ख़्वाब माँग रही है
सदियों की भूख का विकल्प दे सको तो दो
वरना ये भीड़ इन्क़िलाब माँग रही है