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कुछ ग़म भी छुपा रक्खे हैं इफराते-खुशी ने / सादिक़ रिज़वी
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कुछ ग़म भी छुपा रक्खे हैं इफराते-खुशी ने
एहसास दिलाया हमें पलकों की नमी ने
ललचाई तबीयत को संभाला नहीं जी ने
उस शोख़ से नज़रें जो मिलीं हम लगे पीने
अल्लाह के एहसान को मैं भूल गया था
एहसास दिलाया मुझे दौलत की कमी ने
पीते हैं ज़मींदार किसानो का लहू यूं
दहकां की कमर तोड़ी है खाते ने बही ने
तौबा के लिए रिंद तो तैयार थे लेकिन
देखा कि यहाँ शैख़ भी आने लगे पीने
मय पीनी थी जन्नत की मगर पी ली जहाँ में
ज़ाहिद को जो पैमाना दिया रामकली ने
आईना दिखाते रहे दिलसोज़ नज़ारे
'सादिक़' मेरे जज़्बात को समझा न किसी ने