भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कुछ तो उगे / मोहन साहिल
Kavita Kosh से
मेरे भीतर दबा पड़ा है एक जंगल
सुनता हूँ बूढ़ी जड़ों की सांसें रात भर
दबाता हूँ उठते हुए झाड़ को अर्द्धनिद्रा में
शायद भीतर उग रहे हैं कुछ पत्ते
उड़ रही हैं तितलियाँ
फूलों की प्रतीक्षा में
हो सकता है मैं ही भीतर
एक बगीचा होना चाहता हूं
यह भी मुमकिन है
मेरे भीतर का जंगल कोयले में बदल रहा हो
या उग रहे हों कैक्टस
कभी लगता है जेसे भीतर के आकाश के पंछी
एक-एक गिर रहे हैं घायल होकर
तितलियाँ छटपटा रही हैं वेदना में
तब मैं सोचता हूँ
खोद डालूँ खुद को अच्छी तरह
फिर बोऊँ कुछ अच्छे बीज
पुराने जंगल में कुछ तो उगे
जो बाहर आए और
घर महक से भर जाए।