बनारस, मैं तुम्हें जी रही हूं
या तुम मुझे जी रहे हो ?
कुछ तो रिश्ता है...
क्या ?
बता सकोगे ?
बड़े स्नेह से बनारस ने कहा -
हां कुछ तो रिश्ता है
सांसों का नहीं,
आत्मा की लहरों का ।
तुम मुझे जी रही होती हो
जब तुम्हारी पलकों पर अस्सी घाट की उदासी ठहरती है ।
जब तुम घाटों पर बैठे
अनकहे प्रश्नों से जूझती हो
और मैं तुम्हारे भीतर उतरता जाता हूं ।
मैं भी तुम्हें जीए जा रहा हूं
जब किसी घाट पर
तुम्हारी मौन परछाईं
गंगा में विचरती है
जब मेरी गलियों में
तुम्हारे बचपन की छाया मिल जाती है ।
कुछ तो रिश्ता है ही
शायद काल से परे,
शब्दों से पहले,
वो जो रूह की मिट्टी से
रुह पर लिखा गया है
जिसे सिर्फ़ मैं - बनारस !
समझ सकता हूं
और सिर्फ़ तुम जी सकती हो ।