कुछ दोहे / मानबहादुर सिंह
1
लाल चिरइया सुबह की, पथ, आँगन, खलिहान
जाग-जाग रटती फिरे, चुगे धूप के धान ।।
2
सच बोलँ तो जेल है, झूठ कहूँ भगवान
जेल और भगवान से, लड़े वही इन्सान ।।
3
मुझको पैदल देखकर, सायकिल उड़ी गरूर
दहिने गुज़री कार जब, रुतबा चकनाचूर ।।
4
उनके ना तलवार है, ना भाला बन्दूक
उन्हें निहत्था मत कहो, उनके है सन्दूक ।।
5
डाकू आएँ रात में, दिन में थानेदार
दोनों के बन्दूक है, दोनों हैं सरकार ।।
6
अब घर जाओ पाहुने, यह दुर्दिन का गाँव
यहाँ सुदामा हैं सभी, नहीं कृष्ण का ठाँव ।।
7
दूल्हन-सी यह ज़िन्दगी, जिस भँड़ुए के साथ
नाच रही त्रियाचरित, वह धन-धरती नाथ ।।
8
बहस न सूरज पर करो, ढलने को है शाम
दिए जला आँगन धरो, यही ज़रूरी काम ।।
9
जैसे विरहिन की हँसी, यह अगहन की धूप
अभी गुनगुनी ना हुई, बुझा साँझ में रूप ।।
10
यह जंगल की आग है, सादे-बोदे पेड़
दुख रगड़े जल उठेंगे, आँधी से तो छेड़ ।।
11
कविता भाषा की गली, उस दिन हुई अकेल
झूठ बिराने लाद के, भड़के बिना नकेल ।।