कुछ नया लिखूँ / मीना अग्रवाल
बचपन से आज तक की यात्रा
आहिस्ता-आहिस्ता की है पूरी,
पर आज भी है
मन में एक आस अधूरी
नहीं ढाल पाई अपने को
उस आकार में
जैसा माँ चाहती थी !
माँ की मीठी यादें,
उनके संग बिताए क्षणों की स्मृतियाँ
आज हो गईं हैं धुँधली,
छा गया है धुआँ
विस्मृति का !
मन-मस्तिष्क पर छाए
धुएँ को हटाकर
जब झाँकती हूँ अंदर,
जब उतरती हूँ
धीरे-धीरे अंतर में,
तो माँ की हँसती-मुस्कुराती सलोनी सूरत
देती है प्रेरणा,
करती है प्रेरित
कि कुछ नया करूँ,
समय की स्लेट पर
भावों के स्वर्णिम अक्षरों से
कुछ नया लिखूँ,
पर माँ ! मन के भाव न जाने क्यों सोए हैं
क्यों नहीं होती झंकृति रोम-रोम में,
क्यों नहीं बजती बाँसुरी तन-मन में,
क्यों नहीं सितार के तार बजने को होते हैं व्याकुल,
क्यों नहीं हाथ
बजाने को होते हैं आकुल,
लगता है
तुझसे मिले संस्कार
तन्द्रा में हैं अलसाए
रिसती जा रही हैं स्मृतियाँ
घिसती जा रही है ज़िंदगी
सोते जा रहे हैं भाव,
थपथपाऊँगी भावों को जगाऊँगी उन्हें
और ले जाऊँगी
कल्पना के सागर के उस पार
जहाँ लगाकर डुबकी
लाएँगे ढूँढकर
अनगिन काव्य-मोती,
मोतियों की माला से सजाऊँगी वैरागी मन
तब होगा नवसृजन,
बजेगी चैन की बाँसुरी !
पहनकर दर्द के घुँघुरू नाचेगी
जब पीड़ा ता थेई तत् तत्
शब्दों की ढोलक देगी थाप
ता किट धा
व्याकुलता की बजेगी उर में झाँझ
साथ देगी
कल्पना की सारंगी होगी अनोखी झंकार
मिलेगा आकार
मन के भावों को, माँ ! दो आशीर्वाद
कर सकूँ नवसृजन
और जब आऊँ
तुम्हारे पास
तो तुम्हें पा मुस्कुराऊँ,
एक ही संकल्प
बार-बार और क्षण-क्षण
न दोहराऊँ !