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कुछ न कुछ गल जाता है इस जीवन का / मनोज कुमार झा

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खत किया पूरा
अपूर्ण टुकड़े के नीचे अपना नाम रखकर
अंत में लिख दिया
जहां-जहां काट-कूट उसे भी खत का
हिस्सा मानना
अनंत लकीरें, असंख्य काट-कूट और
अगनित अक्षर हैं बचे हुए जो
साथ-साथ हजार साल गुजारो तो जान
सकती हो
लिफाफे के ऊपर उसका नाम लिखा
सुंदर लिखना अपनी ताकत के उस पार
था
थोड़ा बेहतर लिख सकता था मगर अंगुलियां थीं रात के नाखूनों से आहत
उबाऊ है अपना पता लिखना
इसे लेकर क्या करूंगा जब लौटा ही देगी
और नहीं भी पहुंचे तो एक खत कम ही
सही
रोज कोई न कोई पत्र गल ही रहा इस
जीवन का.