कुछ न कुछ होगा मिरी मुश्किल का हल फ़ुर्क़त की रात / मेला राम 'वफ़ा'
कुछ न कुछ होगा मिरी मुश्किल का हल फ़ुर्क़त की रात
तुम न आओगे तो आएगी अजल फ़ुर्क़त की रात
आ गया क्या नज़्म-ए-हस्ती में ख़लल फ़ुर्क़त की रात
रुक गया क्यूँ दौर-ए-गर्दूं का अमल फ़ुर्क़त की रात
हो रही हैं शाम से साकिन घड़ी की सूइयाँ
पाँव फैलाता है क्या एक एक पल फ़ुर्क़त की रात
सर्द सर्द आहों से यूँ आँसू मिरे जमते गए
हो गया तामीर इक मोती-महल फ़ुर्क़त की रात
कुछ नहीं खुलता कि आख़िर इस क़दर लम्बी है क्यूँ
वस्ल के दिन का है जब रद्द-ए-अमल फ़ुर्क़त की रात
ज़िंदगी भर ये बला पीछा न छोड़ेगी मिरा
आज जाएगी तो फिर आएगी कल फ़ुर्क़त की रात
सुब्ह का मुँह देखना मेरे मुक़द्दर में न था
मेरा अंदेशा न था कुछ बे-महल फ़ुर्क़त की रात
दर्द में डूबे हुए हैं शहर सारे ऐ 'वफ़ा'
किस क़यामत की कही तू ने ग़ज़ल फ़ुर्क़त की रात