भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कुछ फुटकर शेर / फ़ानी बदायूनी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रफ़्तए-नज़र<ref>उपेक्षित दृष्टि</ref> हो जा, सबसे बेख़बर हो जा।

खुल गया है राज़ अपना खुल न जाये राज़ उनका॥


फ़रेबे-जल्वा और कितना मुकम्मिल ऐ मुआ़ज़ल्लाह।

बड़ी मुश्किल से दिल को बज़्मे-आलम से उठा पाया॥


हाय क्या दिन है कि नक़्शे-सजदा है और सर नहीं।

याद है वोह दिन कि सर था और वबालेदोश<ref>कंधों का बोझ</ref> था।


घर खै़र से तक़दीर ने वीराना बनाया।

सामाने-जुनू<ref>उन्माद का सामान</ref> मुझ से फ़राहम <ref>एकत्र</ref>न हुआ था॥


बालींपै <ref>बीमार के सिरहाने</ref> जब तुम आये तो आई वोह मौत भी।

जिस मौत के लिए मुझे जीना ज़रूर था॥


थी उनके सामने भी वही शाने-इज़्तराब<ref>तड़पने की शान</ref>।

दिल को भी अपनी वज़अ़पै कितना ग़रूर था।


शब्दार्थ
<references/>

</poem>