कुछ बोल दे / निकिता नैथानी
रोकी हुई धाराओं की बाधा खोल दे
क्यों सहम बैठी है गँगा ?
कुछ बोल दे ।
खोई कहाँ तेरी छलकती चाल वो
खोई कहाँ तेरी उफनती धार वो
क्यों तेरा उजला-सा जल धुन्धला गया
क्यों तेरे भीतर का सब मरता गया
आख़िर कब तलक चुपचाप घुटती जाएगी
अब तो अपनी साँस का प्रतिशोध ले
क्यों सहम बैठी है गँगा ?
कुछ बोल दे ।
आज तू अपनी अदालत ख़ुद लगा
और बुला समय और इतिहास को
और भागीरथ पे ज़रा इल्ज़ाम रख
क्या यही दिन दिखाने के वास्ते
कर तपस्या लेके आया था यहाँ ?
अब सोच मत, बस, फ़ैसला तू बोल दे
क्यों सहम बैठी है गँगा ?
कुछ बोल दे ।
अगर सच में इतनी उच्च है ये सभ्यता
तो तेरी हालत क्यों बेचारी हो गई ?
अगर जीवन यहीं से उठ के दुनिया में गया
तो मृत्यु के रस्ते पे क्यों तू खो गई ?
मत भूल अपने कुटुम्ब की तू ज्येष्ठ है
अपनी बहनों को लेकर साथ फिर सैलाब कर
अब तो प्रलय का रास्ता तू खोल दे
क्यों सहम बैठी है गँगा ?
कुछ बोल दे ।
कहते हैं जो माँ हर एक क्षण तुझे
वो खोदते है रेत तेरे पेट से
वो काटते है तेरे वृक्ष रूपी केश को
वो चमचमाने के लिए अपने आलीशान घर
निचोड़ते हैं देह तेरी अन्त तक
अब तो अपनी भावना का बान्ध तोड़ दे
अब तो होकर विकराल तू हुँकार दे
अब सहमना छोड़ गँगा
कुछ बोल दे ।