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कुछ भी दिखा कि मचल गया / दरवेश भारती

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कुछ भी दिखा कि मचल गया
कितना अजीब है बचपना

कुछ रह्म कर न उसे सता
मारा हुआ है जो वक़्त का

पीछे पड़ा है जनम से क्यों
रंजो-अलम का ये क़ाफ़िला

था फ़ासिला जो भी दरमियाँ
भ्रम मिट गये वो भी मिट गया

वो ख़ुश रहे दिये जिसने ग़म
लब पर सदा है यही दुआ

ख़ुद में कमी नज़र आये जब
कैसा किसी से हो फिर गिला

'दरवेश'-सा भी बशर कहाँ
गुज़रे दिनों को भुला सका