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कुछ मूक रिश्ते / दीप्ति पाण्डेय

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कुछ बेबस
और मूक रिश्ते,
कागज़ के उन खतों से होते हैं-
जिन्हे सिर्फ तन्हाइयों में पढ़ा जा सकता है
अँधेरों में महसूस किया जा सकता है
भूल-सी शर्मिंदगी लिए
पड़े रहते हैं-
जीवन के किसी कोने में

ये बेजान रिश्ते
फोल्डेबल होते हैं
अपने-अपने खीसों के अनुसार मोड़े जा सकते हैं
धीरे से पढ़कर सिकोड़े जा सकते हैं
तो कभी उपेक्षित और निर्वासित से
पड़े रहते हैं-
किसी चोर जेब की डस्टबिन में

ये अनाम रिश्ते
कितना धीरज लिए बैठे हैं
क्या कभी लड़े होंगे अपने नाम के लिए
या सह लेना चाहते होंगे सब कुछ
उस एक पल के लिए-
जब उजालों से बचकर उन्हे पढ़ा जाता होगा
क्या कभी अंधेरों में चीखे होंगे
या सचमुच गूँगे हैं-कुछ मूक रिश्ते?