भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कुछ रुबाइयाँ / मीर ग़ुलाम रसूल नाज़की / अग्निशेखर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

एक

वह सोनपरी टहल रही थी सरिता-सरिता
सुन लिए हरियाली ने गीत अप्सराओं के
धोया त्वरित वेग से मुँह जलप्रपात ने
कहते हैं वसन्त ने कनखियों से देख लिया

दो

ख़ुद इसने व्यंजन, पुलाव और कबाब खाए हैं
मुझे चेताया कि आख़िरी दिन हिसाब देना है
सटक कर भोग नाना खूब नसीहत कर गया
ग़रीबी वरदान तेरा, पुण्य बड़ा फाके बिताना

तीन

वो सर्दियाँ, वो समावार और वो हमाम
वो केसर, वो हरीसे<ref>एक प्रकार का तला हुआ मांस</ref>, वो गरम नून चाय
वो अलीशेख़, वो हसन सोफ़ी, शमीमा की आवाज़
वो रसूल मीर<ref>19वीं सदी के रोमाण्टिक कश्मीरी कवि।</ref>, वो महजूर}<ref>आधुनिक युग-प्रवर्तक कश्मीरी कवि</ref>, के क़लाम

चार

क्या धरा कश्मीर थी, वो नवेली बनरी क्या हुई
वो सद्भाव और विश्वास वो देखो क्या हुआ
जाने च़्रार के नित उर्स गुरुवार का क्या हुआ
बिलखती केसर-वाटिका, भावभूमि क्या हुई

पाँच

सौंपा रहिम कसाई ने धन्धा नबी-बढ़ई को
करीम-नाई ले रहा उसकी तेसी से काम
युग ही उलट गया, सब कुछ उलट गया
कहें सयाने 'टेढ़े बर्तन-टेढ़े ढक्कन'

छह

तुम्हें देख फीके पड़ते हैं आड़ू के फूल
उचटते कलियों के दिल तुम्हारी भृकुटि से
नमक है मेरे घावों पर तुम्हारी आभा
अधरों पर आने दे हंसी भर जाएँगे घाव मेरे

सात

कहा तारों ने रूपसी चन्द्रमा से, देख री सभा हमारी
हुआ क्या तुमको, बैठी हो तन्हा तुम अकेली
आह भरी उसने और देखा उनको, फिर बोली —
कोई तो होता मेरा भी करती मन की बात जिससे

आठ

बहरूपियों में क्या अँग्रेज़ है कश्मीरी
है सुस्त पर बतकही में क्या प्रवीर है कश्मीरी
बने हाक़िम तो क्या बजाता है मेज़ कश्मीरी
खींचता ठेला और पढ़ता क्या गुलरेज़<ref>19वीं सदी के मक़बूल शाह क्रालवारी की कालजयी मसनवी</ref> कश्मीरी

नौ

क्या दिन थे ग़रीबी थी, कितना अच्छा था
कोई बोझ नहीं, थे भारहीन हम, कितना अच्छा था
घर था, देग थी, चूल्हा था, कितना अच्छा था
हम मज़दूर थे, बढ़ई थे, कितने अच्छे थे

मूल कश्मीरी से अनुवाद : अग्निशेखर

शब्दार्थ
<references/>