भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कुण अर कठै / गौतम अरोड़ा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मून तोड़
सून सूं आंवती आवाजां
आभै गूंजता नारा
सागै होवण री घोसणा
अर नारा री आवाज सूं तेज
उण भरी हुंकार
बधग्यौ आगै, घणौ आगै
पीढ्यां री पीड़
झुकाय दी कमर
उम्मीदां रो बोझो
लड़खडायदियो पगां नै
पण सुपनां
लगोलग देंवता रैया धक्को
अर वो बावळो
कटतै पाण भी ल।दतो रैयो
नीं करी परवा, ताजै घावां री
पण आवाजां
सून में बेवण लागी मून धारलियो
अर नारा
कांई ठा कठै सूं आया कठै गया
खर खर री आवाजां व्ही
घाटी न्यारी व्हैय पड़गी नीचै
धीर आंख्यां जोयो लारै
लारै रैया फगत
सून अर मून
कुण हा वै
किण सारू हा
अर अबै है कठै??