कुर्सियाँ और बुजुर्ग / नीता पोरवाल
अहाते के एक कोने में रखी
आसमां ताकती
कभी दीवारों से घंटों बतियाती
अपनी जिंदगी के दिन गुजारा करती हैं कुर्सियाँ !
अकेलेपन से घबड़ा
तिनका-तिनका कुतरे जाने की फ़िक्र किये बिना
चुलबुली गिलहरियों का
फटी आँखों से इंतज़ार किया करती हैं कुर्सियाँ !
जकड़े हाथ पाँवों से बेबस
कतारबद्ध लाल चींटियों के द्वारा
स्वयं को हर क्षण खोखला होते देख भी
मुँह से उफ़ करने का हक भी कहाँ रखती हैं कुर्सियाँ !
चरमराते जोड़ों के कारण
शोर ना करने की सख्त हिदायते पा
अपने आँसुओं को ज़ज्ब कर
प्रहरो प्रहर झूलती ही रह जाती है कुर्सियाँ !
अपनी हर पीड़ा भूल
सबकी खुशी में खुश होते हुए
किसी के स्नेहिल हाथों का सहारा पा
तनिक ठुमक लेना चाहती हैं कुर्सियाँ !
तो कभी अपनों की परेशानी देख
कुछ न कर पाने की बेबसी में
जर्जर कांपते हाथ बढ़ाकर
ढेरों दुआएँ देना चाहती हैं कुर्सियाँ !
जीते जी सबको खुश देखने की ख्वाइश लिए
किसी जरूरतमंद के चूल्हे की आग बन
सिर्फ़ राख होने का इंतज़ार किया करती हैं कुर्सियाँ ...