कुहकी कोयल खड़े पेड़ की देह (कविता) / केदारनाथ अग्रवाल
कुहकी कोयल खड़े पेड़ की देह
पंचम स्वर में चढ़कर बोला सन्नाटे में नेह
अधजागी पलकें अकुलाईं
खुले नैन के द्वार
मंत्र-भारती-हृदय-देश में-
पहुँची पिकी-पुकार
कुहकी कोयल खड़े पेड़ की देह
पंचम स्वर में चढ़कर बोला सन्नाटे में नेह
छूमंतर हो गया
सिसकता सरपीला संदेह
एक साथ मधु-पर्व मनाते गेही और अगेह
कुहकी कोयल खड़े पेड़ की देह
पंचम स्वर में चढ़कर बोला सन्नाटे में नेह
ताप-तीर-तलवार चलाता
बीत गया है जेठ
कोकिल-कंठी बान चलाता
जीत गया है जेठ
कुहकी कोयल खड़े पेड़ की देह
पंचम स्वर में चढ़कर बोला सन्नाटे में नेह
आज अयाचित मिला मनुज को
मनचाहा संगीत
प्रकृति पुरुष को, जिला रही है
पिला रही है प्रीत
कुहकी कोयल खड़े पेड़ की देह
पंचम स्वर में चढ़कर बोला सन्नाटे में नेह
रचनाकाल: ०५-०६-१९७६