कृष्ण-चरित / आठम सर्ग / भाग 1 / तन्त्रनाथ झा
ततए कृष्ण सनियम कए गुरूकुल वास
ब्रह्मचर्य पालन रत ससुख छलाह
करइत भए एकाग्र-चित्त स्वाध्याय,
किन्तु देवकी मधुपुर मध्य विष्ण्ण
उत्कण्ठा कातर, उन्मन, उद्विग्न
रहथि अनिश हृतवत्सा धेनु समान।
एकसरि बैसलि, भेलि भावना-मग्न
सोचल मन-मन-
“केहन हमर भेल भाग्य!
केहन अमंगल परिणय परिणति भेल!
यौतुक कारावास पाबि पति संग
काटल ततए यातनामय तारूण्य
पुनि पुनि भए अन्तर्वन्ती, उपभोगि
प्रसव वेदना, दए दए दारक जन्म,
भल निरखबजा शिशु-मुख -अम्बुज, किन्तु
ता’ निष्करूण नृशस कंस गहि ताहि
कए कए वयापादन मेटए निज आधि।
अनुखन शोकानल - प्रदग्ध मात्त्व
तएल प्रतप्त कलुष दुःखोदधि - मग्न।
तेजल नहि तन पिअ-मुख कंज विलोकि।
बन्दी गृहक पराभव भोगि-अशेष।
कए विनिमय अन्तिम सुत सद्यःजात
नन्दक तनया संग बचाओल ताकि
करइत तस्कर - तुल्य गुप्त व्यापार,
किन्तु समस्त पाप जनु धए नर-रूप
जननी-हृदय हमर मरूािल कए देल।
पुनि पुनि उपजि दूध वक्षोरूह पूरि,
दए दए दुस्सह पीड़ा होअए व्यर्थ,
व्यर्थ सर्वथा किन्तु सिरजि सन्ताप
यादश मंजु उरोज बाल विधवाक।
सुनि से तनुज हमर अछि गोकुल मध्य
नन्द तनय अभिहित भए करइत धन्य
नन्द - कलत्र यशोमतीक मातृत्व,
श्रवण जड़ाए, अनामय - वार्ता पाबि,
दग्धहृदय हो शीतल, सुनि सुनि किन्तु
कंस नियोजित खल समुदाय सदैव
करए तकर अभिधातक दुर्व्यापार,
रहए चित्त अनुखन शंकाकुल भेल।
तृष्णातुर लोचन, मानस सोत्कण्ठ;
उर अन्तर प्रज्वलित भेल चिन्ताग्नि,
करए प्रखर उद्वेग पवन खर वेग।
सुनि आत्मजक अलौकिक बाल चरित्र
रही व्यग्र कोनहुपरि सुत भरि अंक,
निरखि नयन भरि करी ज्वलन अपनोद,
परसि गात, चुम्बन कए वदन सुधांशु
प्राप्त करी जननीत्य, छनहु भरि, किन्तु
त्रुटित - पक्ष विहगक समानअसहाय
खेपत समय अङेजि विषम सन्ताप।
दुर्भाग्यक दिन बीतल, कुदिवस ध्वान्त
उत्सारण कए से सुत मिहिर समान
कंसक कएल गमन दए समुचित शास्ति
त्वरित वन्दिशाला शंखल कए भंग
आहलादित भए गहि तन, अंक लोटाए,
चिर - वांछा भल पूरि, यशोदानन्द
उपगत भेल देवकीनन्दन रूप।
किन्तु सुखक दिन हो अति त्वरित व्यतीत,
हिअक ज्वलन छल नहि भल उपशम भेल,
लोचन तृषा न मेटल सुत मुख हेरि
ता’ अध्ययन निमित्त अवन्ती देश
गुरूकुल मध्य पठाओल गुरूजन ताहि।
ताहिजन्य अनुषन भए चिन्ता मग्न,
नहि बिसरल जाइछ मुख कंज कदापि,
रहइछ टाङल ततहि चित्त विक्षिप्त।’,
ता’ आहुक नन्दन नहु-नहु तत आबि
तादृश अन्यमनस्क ताहि अवलोकि
सुभग मर्म रोपल प्रतिमाक समान
नहि करइत अवगत दयितक सान्निध्य,
आकुल कुन्तल, विपर्यस्त परिधान,
रहथि विमुग्ध, स्मित लोचन भए ठाढ़
करइत दयिता मुख विधु दीधित पान
निर्निमेष हगयुगल, चकोर समान,
पुनि नहु-नहु मृदु वचन कहल कर दाबि,
“सुवदनि; सम्प्रति कोन एहन गुरू-आधि
कएल तोहि एताहश चिन्ताग्रस्त?
नहि अछि तन - वसनक सुधि, होइछ भान
भए जनु गेल विस्मरण, औरस सूर
आबि सप्रसभ कएल कंस - विध्वंस
मन्द - भाग्य तम अपहरि, दिन पलटाए,
नहि तथापि अछि विकसित वदन-सरोज!’’
दयितय मृदु कर परसहि सहसा चौंकि
धारि शिरोपरि पति पद पù-पराग
देवक दुहिता सजल नयन राजीव
कम्पित कण्ठहि कहल-
“नाथ, तुम पुत्र
पलटाओल भल दिवस कंस संहारि,
आबि जुड़ाओल तृष्णाकुल हग किन्तु
मातृ-हृदय मरू भल सिंचित नहि भेल,
भेल न छल सुत परसि सुशीतल गात,
ता’ उपगत भए गेल तनय विश्लेष,
करए अध्ययन सुत गुरूकुल चल गेल।
सुमरि - सुमरि सुत - मुख सरोज सोद्वेग,
नहि कए अवगत तकर अनमय वृत्त,
छन-छन पल-पल चिन्ताग्रस्त नितान्त,
होएत कोना सहि शासन ततए कठोर!
एक मात्र सन्तति बहुल प्रसवाक,
कि कहब, हमर मनस्थिति की अछि भेल?’’
कए अवगत भार्याक विषाद निदान,
सहसा आनक दुन्दुभीक हग युग्म
भेल शास्त्र कए स्मरण सखेद अतीत।
सत्वर सम्हरि कहल पत्नी परिबोधि,-
“सुमुखि! अलौकि - विक्रमपुत्रक जन्य
जनु भए चिन्तित करिअ मुखेन्दु मलान।
सिंही की कखनहुँ होइछ उद्विग्न
गहन विपिन विचरण रत शावक जन्य?
अद्भुत वारंवार परेखि चरित्र
अछि प्रत्यय हढ़, महाभाग तुअ पुत्र
साधए काज महान भेल अवतीर्ण।
करब तथापि प्रबन्ध उचित अविलम्ब,
पुत्रक शुभ वार्ता सत्वर कए प्राप्त
निरखब धनि, तुअ विकच वदन - किंजल्क।’’
ई कहि प्रेयसि कर पल्लव हँसि दाबि
यदुकुल भूषण शूरात्मज वसुदेव
उग्रसेन नृप सन्निधि तत्खण जाए
कएल निवेदन,
“महाराज, नहि बूझि
राजकुमारी चिर-दिन तनय क्षेम
रहइत छथि चिन्तातुर श्रीहत भेलि,
श्रीहत दिवसक चन्द्रकलाक समान,
यदि संगत प्रतीत हो , ककरहु शीर्घ
गुरूकुल जिज्ञासार्थ पठाओल जाए,
देखि कृष्ण बलराम, बूझि इतिवृत्त
आबि मातृ-दुश्चिनता करए निरास।’’