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कृष्ण-चरित / आठम सर्ग / भाग 2 / तन्त्रनाथ झा

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यादनेश सुनि वसुदेवक विज्ञप्ति
उद्धवकाँ सत्वर सन्निकट बजाए
कहल-
“अवन्ती जाए परिच्छद साजि
सन्दीपनि कुलपतिकाँ हमर प्रणाम
करब निवेदन, करब सविस्तर ज्ञात,
करइत विद्याभ्यास कृष्ण बलराम
रहइछ कोनविधि करइत गुरूकुल - वास।
लेब संग कए वटुयुगलार्थ सनेस,
प्रचुर उपायन सन्दीपनिक निमित्त,
कए अर्पण आएब कुलपतिकाँ पुछि
भातृद्वयक समावर्त्तनक निमित्त,
कतबा दिन विलम्ब होएत उपपन्न।’’
रूग्णक पथ्यादेश -तुल्य स्पृहणीय
देवश्रवा पाबि भूपतिक निदेश,
शुभ तिथि लग्न चन्द्र नक्षत्र विचारि;
संग लगाए प्रकृष्ट विविध उपहार
शौरि दम्पतिक संचित पुत्रक हेतु,
भूरि उपायन सन्दीपनिक निमित्त
कए सज्जित रथ तुरग परिच्छद संग
सुमरि देव, गुरूजन पद रज शिर धारि,
समुद कएल उज्जयिनी यात्रारम्भ।
सारथि प्रेरित रथ हय चलल सवेग
दक्षिण दिशि, वामहि तजि जन सम्पन्न
बहुल शस्य यमुना जाह्नवी प्रदेश।
दहिनहि छल निर्जन मरूयल - विस्तार;
सम्मुखस्थ छल चेदिराज्य सुसमृद्ध
ऋतु हेमन्त, नील नभ, रविकर रम्य
पुलकित जनु जन खग मृगपादप वल्लि,
पक्व शालि पाण्डुर धरणी छल भव्य,
कतहु विकच कार्पास समन्वित श्वेत,
कतहु हरित गोधू - शस्य अभिराम,
द्विदल - शस्यमय कतहु मनोहर श्याम,
कतहु फुल्ल शण सर्षप मण्डित पीत
कतहु अरूण कचनारक पंक्ति प्रफुल्ल,
उदित भेल जन भूपर सुरपति चाप।
उष्ण चित्र तनुरूह आच्छादित काय
नभ वितान तर नाचए खग समुदाय,
अनायास रोचिष्णु असन कए प्राप्त
विमल व्योग अवलोकन कए सोल्लास
चहकि उठाबए श्रुति मोहक कल गान।
भृंगराज पारावत कूजन मंजु,
तारस्वन चारणायुध - तीव्र - निनाद,
श्यामा - भारद्वाज गान मधु - धार,
प्रमदा हग गंजन खंजन कल गीति
प्लावित करए पथक परिसर निश्शषे।
रंग विरंगक चारू सारिका कीर
नील नभहि आकृष्ट धनुक आकार
उड़इत कूजन करइत जल खग पंक्ति
करए विमुग्ध विलोकन, तोषए कान।
यात्रा क्रमे विलोकन कए साहलाद
नयन रसायन सुषमासार अशेष
तन रूचि नित्य यौवना प्रकृति नटीक
ठाम-ठाम रमणीक स्थली परेखि
विलमि, हयादि समेत भलहि सुस्ताए,
उद्धव चर्मण्वती नदी कए पार,
कएलन्हि उत्तर विन्ध्य - प्रान्त प्रवेश।
रहए ततए दुर्गम अरण्य विस्तार,
छल सर्वत्र उन्नतानत भूपृष्ठ
शैल सशृंग कतहु दिनकर कर दीप्त,
कतहु दरी कन्दर चिर तमसाच्छन्न
कतहु विशाल प्रांशु वन पादप पंक्ति
करए गगन चुम्बन जनु प्रोम्मुख भेल।
छल तरू शाखापर खग-नीड़ असंख्य,
व्याप्त अधस्तल बहु क्षुप वल्ली गुल्म।
पड़ितहिं साँझकरए विचरण निर्धोख
भीषण हिंस्त्र सरीसृप मृग समुदाय,
विविध विलेशय जीव बहिर्गत आबि,
भूमि पृष्ठ पर करए मुक्त संचार।
जँ जँ क्रमिक तपस्विनीक हो वृद्धि,
जाग्रत हो वन,निद्रितहो पुर ग्राम।
हो नाना स्वन व्याप्त समस्त अरण्य
श्रृति कटु करूण मन्द्र मृदु कर्कश तार
गमनागमन करए श्वापद बहु- संख्य
शूकर, शरभ, महिष वृक, मृग, गोमायु,
व्याध्र, शगाल, ऋक्ष, करि करिणी यूथ।
शम्बर निकर चरण् कए शावक संग
भए अनुखन शंकाकुल, शाद्वए ताकि।
कखनहुँ आतंकवह केशरि गर्ज,
भीत हरिण-दल विह्वल भेल पड़ाए
त्यागि अर्द्धचार्वित तृण, हग त्यक्ताश,
फेन स्त्रवित मुख, क्षिप्रवेग, सोच्छ्वास।
व्याकुल भए पशुदल करइत आक्रोश
भाबि समागत जातामर्ष कृतान्त
क्षण-क्षणतकइत चउदिश कातरचित्त
करए पलायन यथासाध्य द्रुत-वेग,
शैल प्रतिध्वनि कए द्विगुणित कर राव,
हो असमय श्रुतिगोचर केका-स्वान।
एंवविध दुरूह पथ कए भल पार,
उद्धव आबि अवन्तीपुरक उपान्त
देखल दूरहिसँ दीर्घ मण्डलाकार,
जनु गुनि उज्जयिनी बिच गिरीशक वास
भेल समागत गिरिशेखर कैलास,
आइलि जनु सुरसरि गिरजापति-संग
धए सुचि सलिला शिप्रा राजत रूप
शोभित नगरक ग्रैवेयकक समान।
कए प्रवेश निरखल शोभा नगरीक
पथ वीथी शृंगाटक सरणि अजिह्य
हेम रजत मणि मुक्ता पण्य विलोकि
हो भ्रम थिक की धनपति कोषागार।
धम भीरू पुरवासी सतत अतन्द्र
करए अहर्निश निज वर्णाश्रम कर्म।
शिवहिक अनुकम्पेँ श्री वाणी संग
वसथि नगर विच बिसरि चिरन्तन वैरि।
ता’ दिवसक अवसान लखि, उद्धव तजि हय यान।
निरखए उज्जथिनीक छवि, पएरहि कएल प्रयाण॥