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कृष्ण-चरित / एगारहम सर्ग / भाग 1 / तन्त्रनाथ झा

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रजनी - तम पटलाच्छादित छल
भल प्रभास निद्रांक - निलीन
छला किन्तु विश्राम - उटजमे
कृष्ण-सुदामा भए आसीन
वार्त्तालाप - मग्न भए उन्मन
उपगत पाबि बन्धु विश्लेष
जएता प्रातहि कुष्ण - राम
मधुपुर - गुरूकुल - निवास कए शेष।1।
कहल सुदामा कृष्णहि हँसइत -
“मित्र, एतएसँ जइतहि मात्र
संगृहीत कए विविध प्रकारेँ
राजकुमारी -सुमुखि कलत्र
प्रमदोद्यान - मध्य बालाकाँ
मन्मथ - तन्त्रक पाठ पढ़ाए
एतएक संयम - जन्य अभाव लेब
गए सूदि - समेत चुकाए।2।
हमरहु बिनु कुष्णक गुरूकुल
लागत सहजहि निष्प्राण
अचिरहि लए कुलपतिक अनुज्ञा
हमहूँ करब प्रयाण
किन्तु करब की जाए न
होइछ से हमरा निष्पन्न
बूझि पड़ए सन्यास लेब
सम्प्रति हमरा उपपन्न ।3।
व्यर्थ एहि संसारक
माया - जाल - मध्य ओझराए
सदा स्वार्थ - चिन्तातुर भेल
व्यग्र दिशि-दिशि बौआए
की कखनहुँ कए सकब
आत्मचिन्तन हम भए एकाग्र
सांसारिक चिन्तासँ होइछ
कुण्ठित बुद्धि कुशाग्र।4।
धन - लिप्सासँ कए धनढ्य
व्यक्ति मिथ्या गुण - गान
विद्या - वृद्धोलोकनि गमबथि
अपन आत्म - सम्मान
अनुपद प्रबल प्रलोभन
अनुपल कपट - प्रवंचन - कर्म
के थिक हित के थिक वैरी
असाध्य जानब ई मर्म।5।
लक्ष्यहीन - जीवनमे मानव
तत्त्वज्ञान बौहाए
अपसिआतँ पछुअओने जाए
भोगाक्त भेल भरि जीवन
राखल पाल बटोरि
कोल्हुक बड़द समान अहर्निश
दैत रहए चकभोरि।6।
की कलत्र, की पुत्र;
सकल संकीर्ण स्वार्थमे लग्न
रहए सदैव नचबइत भए
क्षणभंगुर सुखहि निमग्न
बन्धन बुझि थिक जाल
ताहिसँ उचित दूर रहबाक
थाल माखि धोएबासँ
श्रेयस्कर थिक रहब फराक।7।
कांचन तथ कामिनी लोकक
चोचन कए अवरूद्ध
पथभ्रष्ठ कए करइछ विस्तृत
कपट - जालमे बद्ध
सतत अतृप्त अपरिमित
भोगक लिप्सासँ आक्रान्त
रहइछ लोक व्यग्रतासँ
जीवन भरि भेल अशान्त।8।
करए दार - संग्रह कए
द्विपद चतुष्पद सन व्यापार
प्रमदासक्त लोक भए
जाइत नष्ट विवेक विचार
सहज चपल मति नारि
कौशलेँ मोहि पुरूष - समुदाय
कपट - प्रलोभन दए-दए वश
कए राखए पाछु लगाए।9।
जन्मजात पटुतासँ अपनाकेँ
निर्व्याज जनाए
विविध प्रचेष्टित आकर्षणसँ
पुरूषक चित्त चोराए
नारि पूत्ति कए अपन वासना
कए पुरूषक उपयोग
हो अबला अभिहित करितहुँ
यथेच्छ सौख्यक उपयोग।10।
विविध वृत्तिसँ अरजि वित्त;
अभाव सहि ताहि जोगाए
निशि - निशि भरि जागल
सशंक रक्षाक रचैत उपाय
असन्तुष्ट कए, स्वजन - वृन्दसँ
उपलम्भ सुनि नित्य
धन-संग्रहकेँ मानए लोक
परम श्रेयस्कर कृत्य।11।
धन-मकरन्द लुब्ध अनधाबए
धनिकहि भ्रमर समान
कल्पित गुण कल गायन करइत
कए वैभव - मधु पान
धन घटने पुनि सकल पोष्यदल
कए छल तेजए संग
मंजर रहित रसाल;
सरोरूह - विरहित सर तज भृंग।12।
उदर-पुर्त्ति साधन भोजन थिक,
नहि रसनाक विलास
सन्तानोत्पादनक हेतु थिक
विहित नारि सहवास
लक्ष्य बिसरि भए जाए लोक
साधनहि विषय जाए लोक
कखनहु रसना-लम्पट
कखनहु प्रमदा रसनासक्त।13।
अछि सर्वत्र प्रसारित भूरि
प्रलोभन मोहन - जाल
डेग - डेग पर विद्यमान
दृढ़ बन्धन - भय सदिकाल
तेँ विश्वक विभीषिकासँ
हम भए अतिशय संत्रस्त
निश्चय कएल करब सत्वर
संन्यास ग्रहण प्रशस्त।14।
कए प्रासादक आरोहण
वैष्णव सोपान बनाए
पहुँचि ततए पुनि ठेलि
चरणसँ तकरा देब खसाए
कए उपलब्धि लोककाँ लखि
करइत एहन व्यापार
हमरा सन लोकक हेतुक
कए देल विषम संसार।15।
शाश्वत परमात्मा - जलधिक
थिक जीव तरंग - स्वरूप
भेदाभेदक चिन्तनसँ लहि
आत्मा - ज्ञान अनूप
तजि उपभोगक क्षणभंगर
सुख कतहु ताकि एकान्त
आत्माराम भेल भल अरजब
शान्ति अगाद्य अनन्त।16।
हमर मनोमृग निरखि
भयाकुल जग कान्तार कराल
कपट - कुवृत्ति - व्याघ्र - हर्य्यक्ष-
यूथ - पीड़ित सदिकाल
ताकि निरापद बिजन
निरामय परिपूत स्थल आप्त
करत ततए निर्भय निवास
कए निरवसान सुख प्राप्त’’।17।
सुनि विहसित मुख कुष्ण,
सुदामा रियुग करसँ जाँति
मधुर स्वरसँ कहल - “सखे,
तुअ कथन बुझल भत भाँति
किन्तु युद्ध यदि बजरि जाए
तँ पहिनहिँ मानव हारि
किंवा देब विपक्षीकेँ पौरूष
कए मारि खेहारि।18।
जालक मर्म भेल यदि जानल
तँ के सकल बझाए
चीन्हि लेल यिद चोर तखन
की ओ किछु सकत चोराए
जीवन सरणि विषम अछि तेँ
की बैसब पंगु समान
कीट तपंगादिक गतिसँ की
लोकक गति झुझुआन।19।
अएलहुँ शाश्व सरिता जलसँ
अति लघु कण बहराए
जल बुद्बुद् समान पुनि
जाएब ताही मध्य समाए
किन्तु अहाँकेँ पालि-पोसि
के देल समर्थ बनाए?
चललहुँ आज घृणित कुत्सित
कहि तजि तकरहि ठोकराए?।20।
जन्म लेल कहु कतए ककर
बसि उदर मध्य नओ मास
के निरीह शैशवमे पोसल
लालन कतए मनुष्यक बाजब
चालि - ढालि व्यवहार
कतए भेलहुँ द्विज, पाओल
गुरूकुल - शिक्षा एहि प्रकार।21।