कृष्ण-चरित / छठम सर्ग / भाग 1 / तन्त्रनाथ झा
उपशम होइतहिं प्रचण्ड पवनक उत्पात
लागल झहरए घन धार-वृष्टि-सम्पात
जनु ग्रीष्म-दग्ध धरणीकेँ भलहि बहारि
प्रक्षालन कर अतिमात्र ढारि नभ वारि।1।
आश्रम - वटु सकल ससाध्वस बैसल आबि
कुलपतिक समक्ष निराकुल आश्रय पाबि
अंगार - शकटिका निकटहि या??व जाए
शीतार्त्त लोक भए जाइत अछि निरूपाय।2।
दत्त ावधानकुलपति वटुगणहि परेखि
भए वीतचित्त सकुशल भल सबकाँ देखि
पूछल - “छथि कतए सुदामा कुष्ण समेत
छथि कि निमित्त नहि भेल एतए समवेत?’’।3।
“छी जाए रहल हम समिधाहरण निमित्त’’
कहि अपरा???हि भए कानन-गमन- प्रवृत्त
नहि प्रत्यागत छथि भेल एखन पर्यन्त
सुनितहिं कुलपति भेलाह उद्विग्न नितान्त।4।
“आश्रममे इन्धन-समिधक टाल लगाए
ताहि निमित्त पुनि-पुनि काननमे जाए
भावी प्रवात-लक्षण दिशि नहि दए ध्यान
पड़लैन्हि आइ संकटमे उभयक प्राण।5।
शास्त्रानुसार आश्रमक नियम अनिवार्य
सूर्यास्तक पूर्वहि छाड़ि सर्वविध कार्य
आश्रम फिरि आएब सन्ध्याकृत्य निमित्त
भोगथि दुस्सह फल शासन - भंग- प्रवृत।6।
सकलेन्धिय विकल, प्रतिक्षण संकट - मग्न
उठि सिहरि सुनैत महीरूह होइत भग्न
असहाय, असाधन, विह्वल, जीवन हारि
कए त्राहि - त्राहि भगवानक नाम पुकारि।7।
कमइत अतिवात भेल झंझासँ ग्रस्त
निसि मध्य जतए सहजहु जन हो संत्रस्त
भिजइत आश्रय बिनु विपथति बौआए
पड़ता नितान्त दुर्गतिमे भए निरूपाय।8।
असमयक वृष्टिसँ पीड़ित भए वन-जन्तु
सह-सह करइत रहइछ समस्त वन- प्रान्त
प्रतिपद तकरा आघातक शंका-ग्रस्त
रहतैन्हि तनिक जीवन शमनक कर न्यस्त।9।
तिमिरक घन-पटलक भेदनमे असमर्थ
भए जाए मनुष्यक लोचन मानू व्यर्थ
ध्वान्तहि हो तीव्र-हष्टि रजनीचर वन्य
प्राणक शंका तकरासँ ताही जन्य।10।
गज-तुरगादिक संयमन कार्य श्रमसाध्य
गुरूकुल-संचालन-कार्य परन्तु असाध्य
वटुवृन्द ज्ञान-लव-दुर्विदग्ध भए भ्रान्त
उत्पथ चलि अनुखन करइत रहए अशान्त।11।
नाना परिवारक भिन्न स्वभावक बाल
आश्रम-नियमक कए पालन एक प्रकार
होइछ नित तनिक उबटि चलबाक प्रवृति
कए तकर निरीक्षण, नियमन दुष्कर वृत्ति।12।
गढ़ घट सुलभहि लए सानल माटि कुम्हार
उत्थर-गहींर - लघु-पैघ अनेक प्रकार
निर्मित-घट रूप-विपर्यय दुर्घट किन्तु
होइछ स्वभाव-परिवर्त्तन कठिन नितान्त।13।
होइत अछि भिन्न बालकक भिन्न प्रवृत्ति
अवलोकि तनिक अभिरूचि, ज्ञानार्जन-शक्ति
नियमन कए पड़ए बढ़ाबए तनिकर ज्ञान
जनि वैद्य रोग नाशथि अवधारि निदान।14।
थिक किन्तु वैद्यसँ गुरूतर गुरूगण-काज
रोगर्तक करए चिकित्सा वैद्य-समाज
जनिका अपना रोगित्वक नहि हो ज्ञान
तनिका रोगक गरिष्ठता शैल-समान।15।
एकक बहु पर शासन कौशलसँ साध्य
भयजनित अनुज्ञा-पालन नहि थिक श्लाध्य
उपदेश - वचनसँ प्रबल चरित्रक शक्ति
चारित्रयहि हो अनुशासित उग्रो व्यक्ति,
यदुकुल-कुमार सुकुमार प्रखर मतिमान,
आनन्द साहसी, दुर्दम पौरूषवान,
अप्रतिम चपल, अद्भुत-कर्मा भयहीन
बालोचित क्रीड़ा-कर्महि परम प्रवीण।17।
नेतृत्व - लक्षणोपेत सुगात्र भविष्णु
सहचर समुंदायक नैसर्गिक प्रभविष्णु
सम्प्रति संयोगे भेला संकटापन्न
की थीक एखन कर्त्तव्य न हो निष्पन्न!।18।
बुझि थिरमती मेधावी, हढ़काम प्रशांत
कर्त्तव्य - कुशल, उत्तरदायी एकान्त
कृष्णक सब भार सुदामा पर छल देल
तओ कुयोगसँ छल एताहश भेल।19।
कौतुकपर कृष्णक चपल स्वभावक संग
उठि गेल सुदामा - चित्तहुँ तरल - तरंग
कएलैन्हि दुहू मिलि क्रीड़ापर व्यापार
बदलैछ रसायन-गुण योगक अनुसार।20।