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कृष्ण-चरित / तेसर सर्ग / भाग 2 / तन्त्रनाथ झा

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नीलाशोक चिकुर, थलकमल
चरण, वट-पल्लव हस्त
बकहुल अंगुलि, चूत-मंजरी
मौलि - प्रसाधन न्यस्त
उत्पल-मुकुल उरोध मनोहर
नख प्रशस्त कचनार
चम्पक - कनइल - सोनहूल
कांचन-आभूषण - हार।19।
विकच अशोक - पलास-शाल्मली-
सुमन अरूण परिधान
द्रुम-मंजर राजत - कांचन-
सूत्रहिँ कृत चित्र-विधान
अलिकुल-गुंजन भूषण-शिंजन
स्वेद पड़ल मकरन्द
सुमन-रेणु पर रेणु सगर तन
उड़ि-उड़ि पड़ल अमन्द।20।
दाड़िम, अमलतास सेवन्ती
सर्वजया बहु रंग
अपराजिता, तगर, बेली
करबीर प्रसूनक संग
मरकत हरित पत्र नवरत्न
जड़ल भूषण सम्भार
कुहुकि-कुहुकि पिक कर स्वागत
लखि ऋतुपति-श्री अवतार।21।
नवका अन्नक विन्यासक
पाबनि मेषक संक्राति पुनीत
पूरी - बड़ी - सातु आदिक
भोजन-वितरण कए इच्छती
राखथि पुनि ओरिआए वस्तु सब
अपर दिवस लए बासि बनाए
जूड़शीतलक पर्व मनोरम पड़इत
अछि अग्रिम दिन जाए।22।
अत्यूषेँ उठि गृहक वरिष्ठा
सभक जुड़ाबथि यत्न कए आबथि
वैसथि नित्यकर्म कए खाए
पुरइन-दल पर बासि भात
मुनिगा-युत दालि बड़ी-पूड़िक
भोजन करइत जाथि समुद।23।
पोखरि जाए सकल नवतुरिआ
क्रीड़ा-निरत सबहि भए संड़
‘‘हर-हर महादेव’’ धुनि करइत
ठकदरूआकेँ करइत तंग
भाउजि-मामि आदिकेँ कादो-
माटि-पानि तोपइत भरि पोख
अनचिनहारो पथिकलोकनिकेँ
करथि उपद्रव सहइत रोष।24।
भरि गामक सब कतहु पैघ
पोखरिमे भए एकत्र खेलाए
घुमि-घुमि शिवक नचारी गबइत
नाना रंग समान बनाए
कतहु बैसि पुनि मिलि भरि
इच्छा कए भए हुलसित गान
भेद-भाव अपसारि सकल भल करथि
मुदित भए विजया-पान।25।
कए किछु खन विश्राम वृद्ध-
बालक-वंचित गामक सब लोक
भए एकत्र शिकार निमित्तक
चलथ संग लए कुकुर कतोक
बान्हि मुरेठा काछ लगाए
हाथ लए अस्त्र विभिन्न प्रकार
करइत घोल चतुर्दिश घुमइत
झोरथि भरि गामक वन-झाड़।26।
खढे़आ - साही खाद्य-जन्तु जे
भेटइन्ह तकरा सबकेँ मारि
गिदर - खिखीर प्रभृतिअहुकेँ
मारथि सोल्लास खेहारि-खेहारि
पड़इत साँझ खाद्य - मांसक
थोड़ो बखरा लए परम प्रसन्न
जाइत जाथि धूरि घर, भरि
दिन कए क्रीड़ा श्रमसँ अवसन्न।27।
आश्रमवासी । उत्कण्ठित भए
कुलपति - प्रत्यागमनक लेल
ग्रीष्मातपसँ ग्रीष्मक प्रगति
परेखि क्रमहि चिन्तातुर भेल
यथा पक्षिशावक नीड़हिं होइत
क्रम - क्रमसँ दिवसक शेष
चतुर्दिक्षु लखि तिमिर - वृद्धि हो
आतुर माता-जन्य विशेष।28।
केओ अनुमानए कतहु राजकुल
मध्य आग्रहेँ भेल विलम्ब
केओ चिन्तित अस्वस्थ भेला गुरू,
पद दुर्गम, छथि बिुन अवलम्ब।29।
ता’ देखल पथान्तमे अबइत,
कुलपति संग शिष्य - समुदाय
चलल समुद आश्रम - वासी सब
अरिआतए सत्वर अगुआए
केलो हुलसित करताल बजबइत,
केओ उच्चेँ सहचरहि बजाए
केओ दौड़ल निछोह चिन्तातुर
हमहिं प्रथम पहुँची तत जाए।30।
सप्त-व्याहृति तुल्य कलुषहर
अविचल- गति सप्ताश्व - समान
प्रभावन्त सप्तरश्मि-सन तन द्युतिमान
सप्तसिन्धु - गम्भीर सहन - पर
सप्त - द्वीप - धरा समतूल
धन लखि शिखी तुल्य सातो जनकाँ
अबइत लखि भेल प्रफुल्ल।31।
सन्दीपनि चारू वटु तथा
नवीन वटुद्वय कएने संग
भेटइत आश्रमवासिगणक
आह्लादित, करइत कुशल प्रसंग
गहइत चरण आश्रमक वटुकाँ
दए प्रसन्न भए आशीर्वाद
पुछइत पुनि-पुनि अनुपस्थितिमे
घटित सकल ओतएक संवाद।32।
कुशल-क्षेम सकल अवगत कए
भए प्रमुदित निश्चिन्त अशेष
चलला कहि निज कुशल मन्दगति
कहइत यात्रा - वृत्त विशेष
आश्रम आबि बैसि सुस्ताइत
सातो जन चरणादि पखारि
कहि वरिष्ठ आश्रमवासीकाँ
सम्भारक विवरण विस्तारि।33।
‘‘अबइछ लादल शकट अनेको
राजपुरूष - संरक्षित भेल
पाछाँ-पाछाँ सकल उपायन
संग लगाए राजकुल देल
आगाँ जाए संग भए शकटक
आश्रम लए आनू ओरिआए
आनि उतारि सयत्न सकल
राखू गए वस्तु मिलाप मिलाप।34।
अबइछ धेनु अनके घटोध्नी,
प्रथम लुमाओन देब कराए
तखन ताहि सबकेँ गोगृहमे
उचित रूपसँ बान्हब जाए
होएत तृषित बुभुक्षित अतिशय
परम क्लान्त पथ-चालन-जन्य
करब प्रबन्ध तकर, थिक गोधन
रक्षणीय कए यत्न अनन्य।35।
गोधनसँ बढ़िकेँ द्विज-जातिक धन
नहि आन कोनो अछि ज्ञात
होअए एहिसँ पंचयज्ञ-साधन
सौकयेँ प्रत्यह प्राप्त
अमृत-तुल्य गोरस पृथिवी पर
बिनु गोरस भोजन नहि स्वाद्य
बाल-वृद्ध-अस्वस्थक हेतुक थिक
सुपथ्य रूचिकारक खाद्य’’।36।
भए आस्वस्थ बैसि आसन पर
सब जनकाँ निज निकट बजाए
संग नवागत बटुकद्वय केर
सम्यक परिचय देल जनाए
राजपुत्र यदुकुलक युगल ई
एतए अहीँ लोकनीक समान
विधिपूर्वक आश्रममे रहि
करताह अध्ययन, अर्जन ज्ञान।37।
वसुदेवक सुत उभय वटु, रौहिणेय - बलराम
देवक-दुहितात्मज ननिक यवीधन घनश्याम।
पद्मराग्द्युति प्रथम, नीलमणि-गंजक दोसर
कभ्बुण्ठ आजानुबाहु दृग-कंज मनोहर
शोभित गल उपवीत अतित-मौंजी भल कटि-तट
कर-धृत वर वट-दण्ड, पहिरि कौतुम्भ-राग पट
वर छत्र-कमण्डलु-धर युगल,
कमनीय कलेवर मदन-जित
परम-ज्योति जनु अवनि-तल
अवतरित लोक-कल्याण-हित।