कृष्ण-चरित / दोसर सर्ग / भाग 2 / तन्त्रनाथ झा
शंका - समाधान भरि पोष
करथि शिष्यगण भए निर्धोख
अपन पाठ लए भए संतुष्ट
अवर छात्रकेँ छात्र वरिष्ठ
गुरूक अनुज्ञेँ देथि पढ़ाए
सुनइत रहथि ओहो अण्ठाए
ककरहु कतहु स्खलन भए जाए
टोकि गुरू से देखि बुझाए
पहिने पढ़थि वटुकगण वेद
कए अभ्यास अतन्द्र अखेद
पढ़इत पुनि वेदांग समस्त
ब्रह्मचारिगण भए अभ्यस्त
यजन - याजनक सीखथि कर्म
बुझइत जाथि तकर सब मर्म
धर्म - शास्त्र उपनिषद पढ़ि पढ़थि नीति-इतिहास
पढ़ि-पढ़ि पुनि आन्वीक्षिकी बुद्धिक करथि विकास।
राजनीति - अध्ययन कए वार्ता - अर्थ - समेत
धनुर्वेदहुक करयि गए शिक्षा - ग्रहण कतेक।
सकल समन्त्रक सदेवक नाना अस्त्र - प्रयोग
क्षत्रिय बाजक सीखिकेँ करता गए उपयोग।
सकल छात्रगण पाठ लए गुरूकेँ करथि प्रणाम
सन्दीपनि कुलपति तखन सब छात्रक लए नाम।
दए आशिष उपदेश कए प्रस्तुत काज बुझाए
आश्रम घुरि आबय कहथि जा न अस्त भए जाए।
अपनहूँ आसन त्यागि केँ सन्ध्या-कृत - निमित्त
खए अनुमति अभ्यागतक सत्वर होथि प्रवृत्त्स।
दिनकर अस्ताचल पहुँचि करथि दिनक अवसान
पकड़ि प्रतीची-कर करथि मोचन हुनकर मान।
होथि प्रतीची उल्लसित पहिरथि लाल पटोर
तिमिर प्रकल्फ्ति निभृतमे करती केलि अयोर।
कमलिनी प्रोषित - पतिका भेलि
मुख - अरविन्द सँकुचि झट गेल
सकब प्रसाधन मलि तन छार
तेजल मधुप - आभरन - भार
विरह - व्याधिसँ कम्पित गात
दृग जल ढबकल पुरइन -पात
उड़इत आश्रम - तरू ठेकनाए
अति वेगाहिं खोँतामे आबि
प्रमुदित भेल गेल्अ निज पाबि
चेँ - चेँ कए मुँह बबइत गेल्ह
आनल चरी खाए झट लेल
पक्षि-मिथुन भल ताहि खोआए
खोँतामे सटि बैसल जाए
त्रम-त्रम तम प्रगाढ़ भए गेल
जत दिवान्ध से प्रमुदित भेल
यथा शिथिल लखि शासन-डार
खल - लम्पट - व्यभिचारी - चोर
बाट बाढ़ि कर थलहि डुबाए
आँखि अछैत भेल जन अन्ध
घर - घर दीपक भेल प्रबन्ध
यथा अविद्यास अकुलाए
सद्गुरू ताकि शरण जन जाए
दिन भरि खेपल सेबि अन्हार
साँझहिं बढ़ खल-मशक-प्रसार
भन-भन करइत उड़ि घर पैसि
लोकक रक्त पिबए तन बैसि
तुलसी-चौरा आङन माँझ
प्रत्यह गृहिणी पड़ितहि साँझ
लेसि दीप तुलसी आरधथि
सहचारि संग गीत भल गाबथि
आहिताग्नि कुलपति तखन वन्हिक पुष्टि-निमित्त
समिधादिक दए होथि गए सन्ध्या-कृत्य-निवृत्त।
लए दक्षिण कर गोमुखी संख्या-माला दाम
न्यास-ध्यान कए जप करथि संदीपनि गुणधाम।
आश्रमस्थ बटुनिकर कए वेद-पाठ सम्पन्न
सस्वर स्तोत्रक पाठ कए गुरूकाँ करथि प्रसन्न
तखन वटुकगण बैसि समक्ष
ताकि पढै़त अपन समकक्ष
पूर्व - पक्ष करइत निर्द्धोख
उत्तर-पक्षक पकड़थि दोष
करइत युक्ति-युक्त शास्त्रार्थ
भए सतर्क नहि कहि अपदार्थ
पक्ष अपन करइत सम्पुष्ट
गुरूकाँ कएल करथि सन्तुष्ट
जँ आबथि पण्डित अभ्यागत
शास्त्रक शक्ङासँ कए स्वागत
छात्र वरिष्ठ उठाबथि वाद
सुनइत रहथि गुरू लए स्वाद
कोनो पक्ष बीच अवधारि
अपनहिं कुलपति देथि सम्हारि
करइत समाधान उपपादन
कएल करथि शास्त्रार्थ-समापन
कुलपति तखन होथि आस्वस्थ
बैसथि वटुकगण भए निकटस्थ
हुनकासँ इतिहास पुराण
लौकिक कथा निहित नय-ज्ञान
सुनथि सबहि जन ध्यान लगाए,
गुरूक वचनसँ कान जुड़ाए
कथा-व्याजसँ सब अकलेश,
ग्रहण करथि शिक्षा-उपदेश।
भोरहिसँ सुनियत्रिंत रूपेँ
समय बितबइत एहि प्रकार
आसन तजि सन्दीपनि कुलपति
जाइत निज विश्रामगार
देथि अनुज्ञा शिष्यलोकनिकाँ
सब जन जाए करथु विश्राम
मंगलमय आशिष सब अरजथि
कए गुरू-पद शिर राखि प्रणाम।