कृष्ण-चरित / नवम सर्ग / भाग 1 / तन्त्रनाथ झा
उद्धव उज्जयिनी बिच रजनि बिताए
भोरहि शिप्रा पुण्य सलिलमे जाए
कए अवगाहन गतक्लान्ति मुद-चित्त
महाकाल पूजामे भेला प्रवृत।1।
जलधि - मथन कए लेल रत्न सुर आन
नील कण्ठ भए छथि हर कए विष पान
स्मर हर भए वामा अधतन कए लेल
स्वयं दिगम्बर विश्वम्भर छथि भेल।2।
जटा जूटसँ बहइत सुरसरि धार
इन्ड्ड मौलि भूषण अहिपति उर हार
गज व्याध्राजिन उत्तरीय - परिधान
निशित परशु कर करथि भक्तगण - त्राण।3।
जकरासँ यादश अनुराग प्रगाढ़
तकर विगतिसँ दुख ताहि विध बाढ़
अज शाश्वत शंकर मात्रक अनुरक्ति
दैत शोक दहन ज्वालासँ मुक्ति।4।
एताहश शिव महाकाल भल पूजि
उद्धव सफल मनुष्य जनम निज बूझि
चढ़ि रथ, धए गुरूकुल पथ; कएल प्रयाण
आतुर निरखब कखन कृष्ण मुख चान।5।
क्लम अपहारि रजनि भरि कए पुर वास
क्षिप्र-वेग रथ तुरग चलल सोल्लास
अचिरहि नगरक परिसरसँ बहराए
पहुँचल रथ वन खण्ड मध्य अनपाय।6।
अननुभूत - आखेटक प्रेरित - बाण
छल निश्शंक विहग पशु लखि हय-यान
बल्कल - हेतु छिन्न - त्वच वृक्ष अनेक
देखल भग्न कमण्डल पड़ल कतेक।7।
रहए पड़ल छाड़ल मौंजी कए ठाम
छिड़िआएल निर्माल्य, प्रसूनक दाम
अएलहुँ गुरूकुल - परिसर, ई अनुमान
निरखि कएल उद्धव करइत अवधान।8।
होम धूम लखि नभहि प्रचुर परिमाण
हो सन्देह बनैछ स्वर्ग सोपान
अथवा देखि सबहि करइत स्वाध्याय
कलुष -अविद्या कतहु पड़ाएल जा।9।
तृण चय सद्यः - उत्पाटित कुश-मुष्टि
भूमि, आश्रमक शुचि सम्पन्न प्रकृष्ट
अर्ध्योदक, झरइत प्रसून - मकरन्द
सुवचन, खगदल - कूजन -गान अमन्द।10।
शुक - कपोत श्यामा वार्कव कलनाद
कए मुखरित आरमक यथा आहलाद
उपगत तुरगयान लखि, एहि प्रकार
कएल सबहु तनिकर स्वागत - सत्कार।11।
भेल विनत तरू पाबि विपुल फल भार
कल-कल ध्वनि करइत बह निर्मल धार
तृण तजि उन्मुख अवलोकए मुग वृन्द
झरए प्रसून पवन बिनु, उड़ए मिलिन्द।12।
आश्रमवासी सपरच्छिद रथ देखि
महामान्य अभयागत उपगत लेखि
भए उत्सुक अरिआति आबि अगुआए
आएल सप्रश्रय आश्रम लए जाए।13।
आश्रम सीमापर हय रथ कए ठाढ़
उतरि व्यक्त करइत सम्मान प्रगाढ़
उद्धव तनिका सबकाँ निकट बजाए
कए अभिवादन परिचय देल जनाए।14।
कए अवगत कुलपति सम्प्रति छथि गेल
करए प्रभाव वास भरि मासक लेल
लए कृष्णदि छात्रकेँ अपना संग
बुझि सहसा उद्धवक भेल मग भंग।15।
वदन उदास यथा मेघावृत्त चान
विकच कुमुद रवि अशजाल पड़ि म्लान
भेल विकृत मुख तत्क्षण भए अभिभूत
यथा सरस भनि चाखि दन्तशरू चूर्त16।
त्वरित सम्हरि कए भाव विकृति परिहार
भए गम्भीर कएल किछु काल विचार
भाषल पुनि जाएब अबिलम्ब प्रवास
विलमब एतए निरर्थक थिक भरि मास’।17।
कए अवगत पथ, सत्वर चढ़ि हययान
उद्धव कएल प्रवासक हेतु प्रयाण
अनुषन रहन्हि कृष्ण पर लागल चित्त
तेँ यात्रार्थ तुरन्त भेलाह प्रवृत।18।