कृष्ण-चरित / पहिल सर्ग / भाग 2 / तन्त्रनाथ झा
जे भोजन बसि नगर बिच हो प्रतिशय व्यय-साक्ष्य
से अजस्त्र उपलब्ध हो सहजहि कानन मध्य।
ऊपर दिशि अमती ओ मेनहर
आनो काँटक क्षुप लघु-नमहर
बहुविध लत्ती तोपल ताहि
कतहु बेँत छल पाहिक पाहि
मएना-कन्द, कंचु ओ पेँची
करमी ओ केसौर, सरहच्ची
केरा ततए अनेक प्रकार
बीटक बीट रहए गुलजार
घैरक घैर अजोह जोआएल
देखि ककर नहि नयन लोभाएल
कोनो पाकि पीअर भए गेल
ठाम ठाम काँचो रहि गेल
सभमे लटकल छल भल फूल
सोभइत छल कण्ठा समतूल
जड़ल जेना पन्ना पोखराज
मानिक माझहि लटकल छाज
त्रम-कम विपिन सघन भए गेल
लुबुधल छल फल जतए अलेल
आम, लताम, जामु ओ बरहर
तूँति, तेनु, अत्ता ओ कटहर
धात्रि, बैर, सतालुक हरफा
तेतारि, डुम्मरि टाभ, सरीफा
नेबो, नारंगी ओ तार
नारिकेर हरूसाक पसार
इलची रूचिर, सपेता, खीरी
अमरा, कमरख तथा घमौरी
कतहु करौना पाहिक पाहि
जी पनिछाइत देखितहि जाहि
सुभग सरीफा नमरल डारि
पाकि बसल तरूतरमे मारि
पशु-पक्षीक रहैत छल पसरल भोज अलेल
रजनि-दिवस वनदेवता सदावर्त जनु देल।
बजर - बट्टुकक पात प्रशस्त
पुस्तक लिखल जाए विन्यस्त
हरिर, बेहड़, इन्द्रयव, भेला
रिट्ठी, अमलतास ओ कोचिला
अर्जुन,दिठवरना, फुलबाँस
कोसक कोस विकट वनबाँस
कथ, छतिवन, सिनुआरि कोरैआ
इज्जर, पिट्ठा, जमुनी, झौआ
बढ़, पकड़ि, पलास, पीपर
सीसो, साँखु, सिरिस ओ सीमर
नीम गम्हारि, महु ओ चानन
महावृक्ष सब छारल कानन
काँट भरल द्रुम खएर, पिड़ार
दुर्घट ततए लोक- संचार
ऊपर तरू सब तान बितान,
नीचाँ घासक विपुल बिछान
कतहु न गोचर धरती बाट
दिनहुँ अन्हार भरल थल काँट
भोजपत्र, रूद्राक्ष, शिरीष
रकतचाननक तरू दस-बीस
रहए अनेक पितौझिआ वृक्ष
संचर ततए अभय मृग-ऋक्ष
नीलगाए, बानर ओ नढे़आ
लंगुर, खिखिर तितर ओ खढ़ेआ
निर्भय विहरय बनक पशु ओ पक्षी-समुदाय
कखनहुँ केँ बहराएकेँ आश्रम दिशि चल जाए।
कखनहुँ मृगशावक ततए फुलबाड़ी मे जाए
टोङए कोमल पात सब कुदि - कुदि निर्भय खाए।
आश्रम-शिशु कखनहुँ पकड़ि धरथि ताहि लए जाए
खाए ततए नीदार पुनि निर्भय जाए पड़ाए।
नित्य मयुरक मिथुन सब चरए वाटिका जाए
बिधुनि ततए निर्माल्यकेँ बिछि-बिछि अक्षत खाए।
देखतहिं मेघ प्रमत्त भए पिच्छ पसारि उठाए
नाचि नाचि कलरव करए दर्शक-नयन जुड़ाए।
कुलपति सन्दीपनि मुनि-पुगंव,
गुरूकुल हुनक रहए प्रख्यात
ब्रह्मचारि - गण बहुसंख्यक तत
जुटितहिं रहथि उच्चकुल-जात
करथि वेद - वेदांग - अध्ययन
गुरू - शुश्रूषा - रत एकान्त
सदाचार पालन कए विधिवत
ततए समावर्त्तन - पर्यन्त।