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कृष्ण-चरित / पाँचम सर्ग / भाग 1 / तन्त्रनाथ झा

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जँ - जँ पवनक गति घटल गेल
तँ - तँ घन घनतर धार भेल
हो क्रोधक क्रमशः होइत ह्रास
यादृश विवेक- बुद्धिक विकास।1।
धुलीक राशि उड़िआए पवन
अवनी - नभ छल कए देल मलिन
तकरा करबा लए प्राच्छालन
जलधर धावक कए परूषस्वन।2।
चपला - प्रदीपकेँ बारि -बारि
करइत जनु अवलोकन निहार।
अविरल वर्षा जलधार ढार
भल भाँति मलीमसकेँ पखार।3।
सूतलि विमुखलि तल्पान्त जाए
घन-गर्जन सुनि उठइत चेहाए।
मानिनि भयार्त्त भए हृदय-लग्न
भए अपनहि करइछ मान - भग्न।4।
क्षन-क्षन पर होइत बज्रपात
करइत जन - लोचन -प्रतीघात
अपहरलक लोकक दृष्टि-ज्ञान
तम - चपला दूनू भए समान।5।
विद्युत् प्रदीप्त भए पल-पल पर
कए देल तमिस्त्रा दारूणतर
चंचल-चित्त मित्रो शत्रु-तुल्य
क्षणमतिक विश्वमे कोन मूल्य।6।
दम्भोलि-पतन अति घोर-स्वन,
करइत रहि-रहि जन हृत्कम्पन।
कए देल लोककेँ श्रोत्र - विकल
अतिमात्र औषधक फल उनटल।7।
गुनि लोक-प्रधर्षक खल दुर्मति
जल र निदाघ पर भए प्रकुपति।
जनु शम्पा - तस्कर वर्ति बारि
तत्पर भए तकइत हो निहारि।8।
चर - चाँचर, निर्झर, सर-पल्लव
वन - उपवन,आड़न बाध सकल
गिरि- कन्दर, तरू-लतिका समस्त
जे सब निदाघ चल कएल व्यस्त।9।
अन्वेषण करइत भल निहारि
भीषण पवि अन्धाधुन्ध मारि
वर्षण करइछ घनधार-बाण
सम्भव नहि ग्रीष्मक आज त्राण।10।
जन - हर्षक नृप दुर्गति परेखि
हो हृष्ट लोक निज त्राण लेखि
उन्मद - दुर्वृत्तक शास्ति परूष
उत्पन्न न कर संवेदन - दुख।11।
भरि प्रहर मूसलाधार ढ़ारि
बरसैत निरन्तर मेघ वारि।
सर्वत्र भुमिपर जल बहाए
झकझोड़ल वन-उपवन नहाए।12।
जा’ बीतल रजनी प्रहर - द्वय
हठि गेल गगनसँ वारिद - चय
बनुछेकेँ सब भए वीत - चित्त
भए गेल उचित - कार्य - प्रवृत्त।13।
भरि गगन तरेगन भेल प्रगट
हटि गेल लोक-जीवन-संकट।
निशि रहितहुँ खग-मृग व्यग्र भेल
भरि राति स्वस्थ आश्रयक लेल।14।
तनकेँ समेटि वट - वट - मूलस्थित
निश्चेष्ट व्यग्र दुश्चिन्तान्वित।
अवालोकि सुदाम समय स्वस्थ
कृष्णार्थ होअए लगलाह व्यस्त।15।
‘‘ई राजपुत्र वन मध्य आबि
हमरा संगहिं कत कष्ट पाबि
भरि राति कोना खेपताह एना
सुतताह कोना ई सेज बिना।16।
बिनु प्रातेँ घुरि जाएब न साध्य
पथ भयग्रस्त पिच्छर असाध्य।
रहइत सतर्क सहि अकल कष्ट
सम्प्रति एहि ठामहि रहब इष्ठ’’।17।
करइत चिन्तन एंव प्रकार
हेरल कृष्णहि पूछए विचार।
अवलोकि कृष्णकेँ भल प्रसुप्त,
भए गेला सुदामा चकित-चित्त।18।
‘‘वनमे विपन्न आस्तरण-हीन
छथि पड़ल कोना ई भेर निन्द!
जगलो जत खेपब कष्ट-साध्य
तत सूतब तँ सहजहिं असाध्य!।19।
प्रतिपल भए संकटसँ शंकित
हम छी जगलो रहि आतंकित।
अथवा ज्ञाने उपजाब भीति
अज्ञान-जनित ई सकथि सूति।20।
रहइत सतर्क हिनका अगोरि
सम्प्रति दी हिनका सुतल छोड़ि।
की होयत फल हिनका जगाए
निरूपाय विषम संकट जनाए।21।
अज्ञाने सुखकर जत रहैछ
तत ज्ञान विषम सन्ताप ह्वैछ।
बैसी अतन्द्र भए सावधान
बीतए अजनी, होअए विहान’’।22।
करइत विचार एंव प्रकार
लए अपन पर कृष्णौक भार।
तत बैसि सुदामा दण्ड-हस्त
खेपल लागल निशि भेल त्रस्त।23।
हिंसक - जन्तु भयसँ कातर
घन - पल्लव - विस्तृत वट - तरूतर।
रहि - रहि रोमाचिंत भए कँपैत
भए आर्त्तमना हरिनाम लैत।24।
भए विकल क्षुधापीड़ित अमन्द
लगइन्ह रजनि-गति भेल मन्द।
हो सुखक दण्ड पल-तुल्य भान
दुःखक दिवसो मासक समान।25।