कृष्ण लीला / भाग 1 / दर्शन दुबे
छप्पै छन्द
दरस करहु वर रसिक सुजन कर कंज ग्रंथ धरि।
रखु निशिवासर याही सकल लोचन सम्मुख परि॥
सरस ललित परिपूर्ण ग्रंथ अस कीर्ति कहे हैं।
नटवर श्री नन्द नन्द राधिका विलसि रहे हैं॥
दूर न करिहौं कबहुं यहि एक बेर पढ़ि रीझि के।
वेगि हर्ष लहिहौ सुजन, अलभ चैन रस भीजि के॥
॥ऊँ॥
कृष्ण-लीला
(निज बोली की कविता)
दोहा
वन्दि विनायक चरणयुग, श्रीशारद शिर नाय।
लिखन चहै छीं कृष्ण कें लीला काव्य बनाय॥
सवैया
पानी भरै यमुना-तट में एखनि जनि जाहों कोई ब्रजबाला।
लंपट के सिरताज सखा संग धूम मचावै छथि नन्दलाला॥
औचक धाय के बाँह धरै छथि अंचल छोड़ि तोरै छथि माला।
दर्शन गागरि फोरि हँसे छथि तालि बजाय चुमे छथि गाला॥1॥
कवित्त
कहब सुनाय के की हाल दूध हेतु सखि,
आज भोरे भेल जे बथान में जाय के;
शुपुत बात छैक, कान मांहि कहबाक जोग,
झपटि से जाहु सुनि कहथि हंकाय के।
करता खुटाय कान बझि ने समीप भेलौ,
बाँह के पकरि गोदि लेलका बसाय के
दर्शन जू लोक-लाज शंक-भय छोरि कुच
पकरि मरोरि चूमि लेलका बनाय के॥2॥
मोहन के हाल कहतें बनै छै नहिं,
देखै छिय छोटे पर खोटे अधिकाय छथि
चूपे-चूपे गेह-गेह चोर सम पैठे छथि,
माखन घी खाय दधि मटकि नशाय छथि।
कुछेक चुराय लै के भागल पराय जाय,
गोप के सखान केलि-कुंज में जिमाय छथि
दर्शन जू जाय जशोमति के उराहनो सुनाय
कान्ह आय तहाँ चातुरि जनाय छथि॥3॥
देखु सखि मोहन के ठानि भृकुटी बकानि,
मद मुसकानियुत बाँकी सैन मारै छथि;
चतुर सुजान रसखान में प्रधान छथि,
ठुमुक-ठुमुक चलि उलटि निहारै छथि।
अधर लगाय झुकि-झुकि मटकारा दृग
अटकि-लटकि रस-राग के उतारै छथि;
दर्शन जून महय सखि नाम के पुकारै छथि
मानो ब्रज नारिन पै पेटो न सखि डारै छथि॥4॥
मंद मुस्कान सखि कान्ह को भुले छै न,
महुर-महुर चित्त मोहि चढ़ि आवै छै;
भावै छै विशेष करि बोलनि चवाई भरि,
नैन मटकाय रस-राग मंजु गावै छै।
लावै छै सुप्रेम के समेटि तिय माहि भले,
लटकि अटकि कान्ह बाँसुरि बजावै छै;
धावै छै सुनैन्हैं सुर मानस सुरकि काज,
धाम धंध छोड़ि के अनंद उमगावै छै॥5॥