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केला घरी काटलाह हे बाबा, बारी भेजन सून हे / अंगिका लोकगीत

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   ♦   रचनाकार: अज्ञात

बेटी-विदाई के समय माँ-बाप रो रहे हैं। बेटी उन लोगों को सांत्वना देते हुए कहती है- ‘पिताजी, आपने बारी से केले का घौंद काट दिया, जिसे आपके जामाता ने चुरा लिया। अब आप लोग रो क्यों रहे हैं? पिताजी, पहले तो आप कहते थे कि बेटी जंजाल हो गई है, कब इसकी शादी होगी? लेकिन, अब विदा के समय रो-रोकर धरती पर लोट क्यों रहे हैं?’
इस गीत में मुँहलगी शोख बेटी का चित्रण किया गया है। रोष में आकर वह ऐसा कह तो देती है, लेकिन वह माता-पिता की आन्तरिक पीड़ा को समझ नहीं पाती। पिता ने यह समझकर उसकी शादी तय की और अपना बोझ उसे समझा कि वह जानता था कि बेटी अपने पति-गृह की संपत्ति होती है। योग्य घर-वर देखकर समय पर उसकी शादी कर देनी चाहिए। लेकिन, बिछुड़ने के समय संतान के प्रति उसकी ममता उमड़ पड़ती है। ऐसी स्थिति में उसका रोना-धोना स्वाभाविक ही है।

केला घरी<ref>केले का घौद</ref> काटलाह<ref>काटा</ref> हे बाबा, बारी<ref>घर के नजदीक तरकारी आदि उपजाने के लिए घेरकर तैयार किया हुआ खेत</ref> भेजन सून हे।
सेहो जमैया<ref>जामाता</ref> चोरी जे कैलको<ref>किया</ref>, घरअ भेलन सून हे॥1॥
सातो घरअ बुलि बुलि<ref>घूम-घूमकर; टहल-टहलकर</ref>, अम्माँ जानु रोबे हे।
कतहुँ न देखौं गे बेटी, बाजत नैपुर गे॥2॥
तखनी<ref>उस समय</ref> कैन्हें<ref>क्यों</ref> कहि छेलाह हे बाबा, बेटी भेल जंजाल हे।
अखनी<ref>इस समय</ref> कैन्हें कानै छअ<ref>रो रहे हो</ref> हे बाबा, ध्रती लोटाई हे॥3॥

शब्दार्थ
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