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केलि-इच्छा / साँवरी / अनिरुद्ध प्रसाद विमल

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प्रियतम, आज फिर
कितने युगों के बीत जाने पर
वही चाँद निकला है
इंजोरिया
वही महारास की ठहाका इंजोरिया
जब कृष्ण की
मुरली बजी थी
और सुध-बुध भुला कर
नाची थी
वृन्दावन की कुवाँरियों के संग-संग ब्याही भी
आज वही पूर्णिमा की रात है
वही इंजोरिया रात।

मैं यह भी मानती हूँ कि
यह द्वापर नहीं है
न तो यह जगह ही वह वृन्दावन है
न तो बगल में बहती नदी यमुना है
और न ही किनारे तमाल के वृक्ष
न तो गायों के बथान हैं
और न उसी तरह बछड़ों की कूद
लेकिन रसीली रात तो वही है

आकाश भी तो वही है
हवा भी वैसी ही बह रही है
तारों को टकटकी लगाए
चाँद का निहारना भी तो वैसा ही
जैसे कि साठ हजार गोपियों के बीच
अकेला कृष्ण

लेकिन आज मैं अकेली
वही रात-
वही आकाश -
हवा और तारों के बीच।

चन्दन नदी के किनारे-किनारे
आँख भर खोज रही हूँ तुम्हें

प्रियतम
रूई से भरे बोरे की तरह मुलायम ये बालू
नागफनी की तरह गड़ रहे हैं
अब भी तो आओ पिया
कि जब तक तुम नहीं आओगे
मैं चाँद को डूबने नहीं दूंगी।

आँख भर दिखाई दे रही है जमीन
परती-पलांट
ऊसर-टीकर
पहाड़-पत्थर
सभी जगहों पर फैला है
चाँदनी का बिछौना

प्रियतम
जानते हो
किसके लिए यह बिछा है ?
मेरे तुम्हारे लिए ही तो।

वह देखो
बांसवन से झांकता है चाँद
बाँस की फुनगी पर चढ़ी है चाँदनी
इतराती है
कि रह-रह कर बुलाती है
पहले की तरह ही।

अब भी तो आओ प्रियतम
जब तक तुम नहीं आओगे
मैं चाँद को डूबने नहीं दूँगी।

कि नहीं डूबने दूँगी मैं चाँद को
नहीं जाने दूँगी मैं चाँदनी को
गवाही देगा यह जेठोर पहाड़-
मेरे मौन क्र्र्रन्दन का
और इतिहास सुनेगी सखी चन्दन नदी ।