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केवल हरे बबूल ! / श्रीप्रकाश शुक्ल

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इस निर्जन में सब कुछ ठहरा
बासी हैं सब फूल
सूख गई है मन की काया
केवल हरे बबूल !

कोइलिया जल्दी कूको ना !!

देखो कैसा चान्द उगा है
तन का शीतल तप्त हुआ है
गंगा निरमल कल-कल छवि में
घाट विहंसता जप्त हुआ है

इस उदास सी काया में अब
जीवन जग संशप्त हुआ है

कोइलिया जल्दी कूको ना !

श्रमिक चल पड़े आहें भरते
सूनीं सड़कें गुलज़ार हुईं
गिरते पड़ते पहुँचे घर फिर
हलचल गाँव में चार हुईं

थके पाँव हुलसित दौड़े जब
आँखें सब बेज़ार हुईं

कोइलिया जल्दी कूको ना !

घर की मलकिन देख रही है
'वे' आएँगे सोच रही है
चूल्हे पर अदहन डाल हठीली
बातें कुछ कुछ बोल रही है

हुलस उठी तब दौड़ पड़ी पर
भर उदास अब लौट रही है

कोइलिया जल्दी कूको ना !

गौरैया भी जगी हुई है
तिनका तिनका बीन रही है
सृजन राग से इस दुनिया में
जाग, भाग को साध रही है

हुआ सवेरा दौड़ी आई
मिला नहीं जो ढूँढ़ रही है !

कोइलिया जल्दी कूको ना !

उठी लहर आया एक झोंका
ज़हर हवा ले
कहर रही है
नहीं चहकते कुत्ते बिल्ली

'जन' ग़ायब क्यों
पूछ रही है

कोइलिया जल्दी कूको ना !