भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

केश धोना (परिचय) / अम्बर रंजना पाण्डेय

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

शिशिर दिवस केश धो रही थी वह, जब मैंने
उसे पहली बार देखा था भरे कूप पर ।
आम पर बैठे शुक-सारिकाएँ मेघदूत
के छंद रटते-रटते सूर के संयोगों
भरे पद गाने लगे अचानक । केश निचोड़
और बाएँ हाथ से थोड़े से ऊँचे कर
उसने देखा और फटी धोती के टुकड़े
से पोंछ जलफूल उठी नील लता-सी । चली ।
दो चरण धीमे धरे ऐसे जैसे कोई
उलटता पलटता हो कमल के ढेर में दो
कमल । कमल, कमल, कमल थे खिल
रहें दसों दिसियों । कमल के भीतर भी कमल ।