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कैक्टस / भास्कर चौधुरी
Kavita Kosh से
एक टुकड़ा भी
नहीं बादल का
तुम्हारे आसमान में
कड़ी धूप
दिन भर की
काली रातों की
कड़कड़ाती ठंड
शुष्क ज़मीन
सूखी रेत
गहरे-गहरे तक
पानी नहीं जिसके
वहीं बसते हो तुम
हरे-हरह्रष्ट-पुष्ट
सोखते हो
तुम कितना कम
जीवन रस
ज़रूरतें तुम्हारी कितनी कम...