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कैद है आदमी का सूरज / केदारनाथ अग्रवाल
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कैद है
आदमी का सूरज
आदमी की कोठरी में,
आदमी के साथ।
न देश-बोध होता है जहाँ-
न काल-बोध,
न कर्म-बोध होता है जहाँ-
न सृष्टि-बोध।
न आदमी रहता है
जहाँ आदमी,
न सूरज रहता है
जहाँ सूरज,
हविष्य होते हैं जहाँ दोनों-
आदमी और सूरज
कपाट बंद कोठरी में।
रचनाकाल: १४-१०-१९६९