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कैनवास पर बादल / संतोष श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
मैंने तुम्हें अपने ब्रश से
कैनवास पर क्या उतारा
तुम तो रेखाओं को तोड़
रंगों को चुरा उड़ गए
और छा गए आकाश पर
अभिसार का गुलाबी रंग
एक धमक के साथ
खड़ा है सामने
और कैनवास पर बिखरे
रंगों में खलबली
मच गई है
काले, सलेटी, सफ़ेद
रंगो का अट्टहास
सहा नहीं जाता
आहत है गुलाबी रंग
चित्र से बिछड़कर
व्याकुल भी
और इसीलिए
मेरे चित्र में
उठा है तूफान
जिसे तुम और भी
डरावना कर रहे हो
बार-बार बिजली
चमका कर
बार बार गरजकर
ये कैसा परिहास है बादल
मेरे चित्र को अधूरा कर
तुम कौन-सा सुख
पा रहे हो
जब कि पूरा आसमान
तुम्हें धारे रहेगा
पूरी एक ऋतु