भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कैसा अंधेर / प्रभुदयाल श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
अग्गल में गुड़िया के हाथी,
बग्गल में गुड़िया के शेर।
दादीमाँ ने जब देखा तो,
हो गई बैठे-बैठे ढेर।
दादी यह तो नकली हाथी,
छूकर देखो नकली शेर।
सुनकर उठी लपककर दादी,
बोली यह कैसा अंधेर।