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कैसे करि हरि! तुमहिं विसारूँ / स्वामी सनातनदेव

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राग भूपाल-तोड़ी, तीन ताल 1.9.1974

कैसे करि हरि! तुमहिं विसारूँ।
मेरे जीवन के जीवन तुम, कैसे तुम बिनु जीवन धारूँ॥
तन-मन में कन-कनमें तुम हो, छिन-छिन सबमें तुमहिं निहारूँ।
तुम बिनु बाहर-भीतर प्रियतम! कहूँ न कोऊ वस्तु विचारूँ॥1॥
तुम ही तो सब कुछ हो प्यारे! तुमसों भिन्न न कछु उर धारूँ।
पै सब के सब कुछ हूँ तुमकों सबसों भिन्नहुँ नित्य निहारूँ॥2॥
सब अरु सबसों भिन्न तुमहि हो, तुमहिं त्यागि फिर कित झकमारूँ।
यासों जब जो कछु उरभावै, सब ही में तब छवि निरधारूँ<ref>निश्चय करूँ</ref>॥3॥
तुम ही सों सब मिल्यौ प्रानधन! कैसे यह उपकार विसारूँ।
सब कछु लेहु देहु निज पद-रति-यही परम सुहाग हिय सारूँ॥4॥
तुम ही मेरे सब कुछ हरि! तुव रति पै तन-मन सब वारूँ।
तुव रति ही मति-गति है मेरी, और न कोउ सम्पति निरधारूँ॥5॥
सदा-सदा मैं स्याम! तिहारो, तुम बिनु अपनो कोउ न निहारूँ।
तुव पद-रति ही है मम सम्पति, कैसे ताकी ललक विसारूँ॥6॥
अपनो जानि सदा अपनहू हो-यही एक आसा उर धारूँ।
छकी रहै तुव रति में यह मति, और न कोउ गति कतहुँ निहारूँ॥7॥

शब्दार्थ
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