भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कैसे कह दूँ? / कौशल किशोर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं कैसे कह दूँ
हरे-भरे पेड़ों के तनों पर
कहीं नहीं मौजूद गोलियों के घाव?

मैं कैसे कह दूँ
चाँद-तारे आज भी बिखेर रहे हैं रोशनी
आकाश में अंधेरा कहीं नहीं है
और वक्त के नक्शे पर से
खून के छींटें गायब हैं पूरी तरह?

यह सब कुछ
आखिर मैं कैसे कह दूँ?

इस मौसम में
कौन सा गीत लिखूँ
कौन सा नया साज-आवाज गढ़ूँ?

आज जब कभी
मैं लिखने बैठता हूँ
बार-बार क्यों गूंजती है वहां
मेरे भाई की चीख
जो नहीं लौटी आज तक
जेलों से वापस
क्यों उभरती है वहाँ
शक्लें भयानक
अंगुलियां रक्त टपकाती
क्यों तैरता है वहाँ
कभी हमारा सहमना
कभी तनना?

कहते हो
संपूर्ण हुई है अधूरी क्रान्ति
बदल गया है राज
बदल रहा सारा समाज
और मैं देख रहा हूं

पहले की तरह अब भी
मेरे पड़ोस के बच्चे
पेट दबाए सो जाते हैं
और गृहस्थी का मालिक
यंत्रों की कातिलाना नीयत के बीच
दिन काटने के बाद लौटता है
पहले की तरह ही
अपनी घरऊँ वकत को
बड़े बड़े नारों
वक्त के रंगीन नक्शों में
रह जाता है टटोलता-पटोलता।

मैं हर सुबह तड़के
जिन्दगी के कुछ ऐसे ही
वाकयातों से गुजरता हूँ
और मेरी पूरी-की पूरी दिनचर्या
बीत जाती है जवाब तलाशते-तलाशते
मेरा हर सच्चा अहसास
बेरहम चार-दीवारियों से घिरा हुआ
क्यों पाता है हर दिन
संकट और खतरों के बीच?

संकट और खतरों के बीच
जब कभी मैं डूबते सूरज को
ललकारने की मुद्रा में होता हूँ
वे लम्बी साजिशों की
गहरी झील में डूबे होते हैं।