कैसे पुकारु / मोहन कुमार डहेरिया
वर्षों से पुकारु रहा हूँ
पहुँच नहीं पाती तुम तक मेरी आवाज
बताओ ओ मेरे छूटे हुए प्रेम
तुम्हें कैसे पुकारु
किसी प्रागैतिहासिक मनुष्य सा पुकारु
उछालता हुआ अपनी आवाज से कामनाओं के छीटें
उस परिन्दे सा पुकारु जो पुकारता है अपने साथी परिन्दे को
जंगल में आग से घिर जाने के बाद
पालने में लेटे शिशु जैसे अंदाज में पुकारना तो
भोलेपन की अति होगी
या उस सूफी गायक सा पुकारु
जो पुकारता है गीत में एक ही पंक्ति को दोहराते हुए कई बार
खटखटा रहा है मानों एक निश्चित अंतराल के बाद लयबद्व ढंग से
अपने आराध्य का द्वार
बताओ ओ मेरे छूटे हुए प्रेम
तुम्हें कैसे पुकारु
उम्मीद की किस दिशा से
विश्वास की किस जमीन पर खड़े होकर पुकारु
और जब पुकारु तो कितने मानसूनों का जल हो मेरी आँखों में
कंठ में कितनी स्मृतियों का हलाहल
क्या उस योद्धा सा पुकारु
जो ढहते-ढहते भी पुकारता है अपने शरीर के असंख्य रोम छिद्रों से
दूर जाते हुए जीवन को
बताओ ओ मेरे छूटे हुए प्रेम
तुम्हें कैसे पुकारु।