भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कैसे मैं वापस घर जाऊँ / संजीव 'शशि'
Kavita Kosh से
मेरे अपनों के सपने, सपनों से मैं घबराऊँ।
कैसे मैं वापस घर जाऊँ॥
मेरी बिटिया के सपने,
मेरे पापा जब आएँगें।
सुंदर-सुंदर से कपड़े,
नन्हीं-सी गुड़िया लाएँगे।
मन ही मन में सोच रहा, कैसे उसको बहलाऊँ।
मेरे मातु-पिता के सपने,
जब बेटा घर आयेगा।
चार घाम की यात्रा पर वह,
साथ हमें ले जायेगा।
मेरा मन चाहे फिर भी मैं श्रवण नहीं बन पाऊँ।
मेरी घरवाली के सपने,
रेशम वाली साड़ी हो।
टी.वी., फ्रिज हो अपने घर में,
दरवाजे पर गाड़ी हो।
उसके नयनों के सपनों से मैं तो डर-डर जाऊँ।
सपनों की खातिर कैसे,
अपनी पहचान बेच दूँ मैं।
इन्हें सँजोने को कैसे,
अपना ईमान बेच दूँ मैं।
सपने तो सपने हैं, कैसे अपनों को समझाऊँ।