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कैसौ आयौ नवल बसंत सखी री मोरे आंगन में / ललित मोहन त्रिवेदी
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कैसो आयो नवल बसंत सखी री मोरे आंगन में !
पोर पोर में आस , प्यास भर गयो उसाँसन में !!
धरा नें ऐसो करो सिंगार !
चुनर सतरंगी , पचलड़ हार !
रसीले नैनन में कचनार !
अंग-अंग अभिसार झरे, ठसकौरी दुलहन में ....
कैसो आयो ..............
उड़े गालन पे लाल अबीर !
हो गई पायलिया मंजीर !
छनकती फिरे जमुन के तीर !
सखि मुंडेर पे कागा बोले, कोयलिया मन में .
कैसो आयो...............
चटख रहो कली-कली को अंग !
फली की देह भई मिरदंग !
नवल तन हूक और हुरदंग !
पिया संदेसो पढ़े ननदिया काजर कोरन में ....
कैसो आयो ...........
चढ़ो ऐसो टेसू को रंग !
जोगिया बन गए पिया मलंग !
बिलम गई फाग आग के संग !
मैं वासंती चुनर निहारत रह गई दरपन में ....
कैसो आयो ..........