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कोई अनुबन्ध जिया मैंने / शब्द के संचरण में / रामस्वरूप 'सिन्दूर'

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पल-छिन कोई अनुबन्ध जिया मैंने!
जीवन कितना निर्बन्ध जिया मैंने!

मैं महाशून्य की हिम-यात्रा पर था
सहयात्री-सा संवेदन साथ रहा,
सर्पीले आरोहण-अवरोहण में
मेरे सिर पर करुणा का हाथ रहा,
वैदेही-छवियों के सम्मोहन में
परिचय-विहीन सम्बन्ध जिया मैंने!

मैं आ पहुँचा फूलों की घाटी में
जल-प्लावन का आदिम एकान्त लिये,
सुरभित सुधियों की विषकन्याओं ने
मेरे अधरों पर दंशन टांक दिये,
हो गया तरंगित अमृत शिराओं में
आजन्म मन्त्रवत छन्द जिया मैंने!

थिर हुई एक छाया संवेगों में
स्वप्न-से रूप आते हैं, जाते हैं,
जो शब्द, नाद ही नाद हो गये हैं
वे शब्द, मुझे गीतों में गाते हैं,
शरबिद्ध-मिलन का आदि श्लोक हूँ मैं
आँसू-आँसू आनन्द जिया मैंने!